इसी तरह के मौन सन्नाटे में
जीभ को साधते रहते हैं हम
अपारदर्शी भविष्य
और चमकीले अतीत में
वर्तमान ऐसे लुढकता है जैसे
कोई पत्थर लुढक रहा हो
और गंतव्य का पता न हो
हमारा असली भविष्य
हम नहीं लोग देखेंगे जो बचे रहेंगे।
इस अपार असमझ बूझ को
दर्ज करते रहना
कविता की आदत है।
No comments:
Post a Comment