Friday 5 September 2014

गांधी



जहां  से यात्रा शुरू होती है
वहीँ जा कर समाप्त होती है
किन्तु कुछ रास्ते ऐसे होते हैं
जिनका कोई जवाब नहीं होता ।
ऐसा ही था तुम्हारा रास्ता
तुम्हारे साथ का आदमी
थक नहीं , रुका नहीं ,
सिर्फ चालता रहा
'चरैवेती  चरैवेति' ।
वाकई झुकना  ही पड़ता है
गोकि आदमी झुकना  नही चाहता
किसी इंसान के सामने
और यह भी इसलिए
कि  इन्सान इन्सानमें फर्क क्या है ?
लेकिन कुछ दृष्टियाँ होती हैं
जो सीधे उतर जाती हैं
आँख की आतंरिक सीढ़ीयों से
बहुत गहरे
ह्रदय के सरोवर में
जहां  के अधखिले कमल
और ज्योति पाकर
विकस  जाते हैं ।
कुछ है ही ऐसा जादू
बापू तुम्हारी आँख
और उसपर चुपचाप
विश्राम लेते हुए ऐनक  मे
मुझे काफी लगता है
यही एक यंत्र
अंतरिक्ष की गहराइयों का रहस्य
जान लेने के लिए ।
आदमी चाँद पर पहुँच गया ।
विराट्  पुरुष की दो आँखे
सूर्य और चन्द्रमा
अभी नहीं पहुंचा है इंसान
सत्य और अहिंसा के वे नेत्र
अभी अबूझे हैं ।
बापू , तुम होते तो
कह देते
कि  गलत है तुम्हारी यात्रा
दिलों में पहुँचो ,
उसकी गहराइयों में उतरो
पुराण - पुरुष की दोनों आँखें वहां
बसती है ।
क्या तुम्हे इतना सामान्य-सा
ज्ञान नहीं
कि  जहां  इन्सान होता है
वहां उसकी आँखे होती हैं ?
जाओ , खोज लो जितना चाहो
देख लो अपनी आकांक्षा
महत्वाकांक्षा
लौटकर तो वहीँ आओगे न ।
तुम वहीँ लौटोगे
घुटनों की धोती और खेती में
क्यों कि  अनाज
कलियुग का ही अमृत नहीं
कल-युग का भी अमृत रहेगा ।

आज अखबार से - २. १०. ७ १

No comments:

Post a Comment