Thursday 1 June 2017

कविता

जब भी कातर होता हूँ
तो कविता लिखता हूँ
खोजता हूँ कलम
हड़बड़ी होती है सहसा न मिलने पर बेचैनी 
कि कलम कहाँ है
व्यवस्थित कभी नही रहा कि
सब कुछ समय पर मिले
पर शायद इसी अव्यवस्था ने
दी है इतनी बेचैनी कि कविता लिखता हूँ
मन का मजबूत होता तो क्यों लिखता कविता
कातर भी क्यों होता
मैं भी होता कोई हिटलर
ओबामा
या मोदी
और बम बनाने के बारे में
दुनिया को चमकदार बनाने के हौसले में
बुलंद रहता
मुस्कराता
शरीर की भाषा से सबको
प्रभावित कर के
उत्तम प्रभावशाली भाषण देता,
तो मैं एक निरा मनुष्य
कविता लिखता हूँ
मित्रों के मरने,
कुत्तों के भूख से भौकने
और पड़ोस में चूल्हा न जलने क
समाचार से आहत
भूकंप से मर गए बर्बाद हो गए मनुष्यों
और जवान किसी के बेटे के मरने की खबर
बलात्कार की खबरों
पुलिस कस्टडी में पिटते आदमी की चीख की खबर
और वगैरह-वगैरह
बातों को ले कर परेशान
मैं कविता लिखता हूँ,
कविता में शब्द हवा की तरह मुफ़्त मिलते हैं
बिना किसी बैंक में गए
कविता में दुःख और पीड़ा वैसे ही मिलती है
जैसे त्वचा से देह की सुरक्षा,
कविता माँ की गोद की तरह
बच्चे के पुलक की तरह
कविता एक गाने की तरह
कविता एक प्याली चाय की तरह
कविता थकान के बाद पसर गए
विश्राम की तरह
मुझे मिलती है
बस इतना ही रहस्य है कि
वह जब मिलती है
तो बाँटने के लिए मजबूर करती है
और उसकी यह दी गई मजबूरी
मुझे उसके प्रति बहुत प्यार देती है
क्यों कि जब भी कुछ मिलता है
तो बाँटने का आनंद
शायद प्यार है
और प्यार स्वयम एक बड़ी कविता है ।
(अनंत मिश्र)

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