Thursday 1 June 2017

खड़े रहो मेरे मित्रो अपनी जगह पेड़ो की तरह

उखड़ गए मन की जड़ से 
बने जीवन की त्वचा का स्पर्श
रह गए वंचित हँसी के सागर की लहर से 
अविरल
औ पुरातन देह के यथार्थ में
कोने में छिपे हरे-हरे कुछ पत्तों का बोध
अजब है ,
अजब है जंगले से बाहर देखना
और अनकना
दोपहर की धूप को
जिंदगी की शाम में ,
क्या बचा हुआ आदमी
इतना दयनीय होता है
वह मर गए लोगों की तुलना में भी
दया का पात्र हो जाए,
पेड़ों तुम हिलना नहीं अपनी जगह से
नहीं तो आदमी की तरह
तुम भी पागल हो जाओगे
ऐसी अनेक बातें सोच कर
पेड़ों तुम हिलना नहीं अपनी जगह से
नहीं तो आदमी की तरह
तुम भी पागल हो जाओगे ।
(अनंत मिश्र )

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