उखड़ गए मन की जड़ से
बने जीवन की त्वचा का स्पर्श
रह गए वंचित हँसी के सागर की लहर से
अविरल
औ पुरातन देह के यथार्थ में
कोने में छिपे हरे-हरे कुछ पत्तों का बोध
अजब है ,
अजब है जंगले से बाहर देखना
और अनकना
दोपहर की धूप को
जिंदगी की शाम में ,
क्या बचा हुआ आदमी
इतना दयनीय होता है
वह मर गए लोगों की तुलना में भी
दया का पात्र हो जाए,
पेड़ों तुम हिलना नहीं अपनी जगह से
नहीं तो आदमी की तरह
तुम भी पागल हो जाओगे
ऐसी अनेक बातें सोच कर
पेड़ों तुम हिलना नहीं अपनी जगह से
नहीं तो आदमी की तरह
तुम भी पागल हो जाओगे ।
रह गए वंचित हँसी के सागर की लहर से
अविरल
औ पुरातन देह के यथार्थ में
कोने में छिपे हरे-हरे कुछ पत्तों का बोध
अजब है ,
अजब है जंगले से बाहर देखना
और अनकना
दोपहर की धूप को
जिंदगी की शाम में ,
क्या बचा हुआ आदमी
इतना दयनीय होता है
वह मर गए लोगों की तुलना में भी
दया का पात्र हो जाए,
पेड़ों तुम हिलना नहीं अपनी जगह से
नहीं तो आदमी की तरह
तुम भी पागल हो जाओगे
ऐसी अनेक बातें सोच कर
पेड़ों तुम हिलना नहीं अपनी जगह से
नहीं तो आदमी की तरह
तुम भी पागल हो जाओगे ।
(अनंत मिश्र )
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