Tuesday 18 February 2014

हिंसा


जब भी इच्छाएं पूरी होती हैं 
कोई न कोई मरता है 
हिंसा होती है। 
एक चावल का दाना ही सही 
पक जाता है 
एक हरी-भरी डाल पर 
ऐठी भिन्डी 
काट दी जाती है 
और तो और 
भारी सुरक्षा के बीच 
लिपटी बेचारी प्याज 
सलाद में बदल दी जाती है ,
किसी मुर्गे के पंख नुचते हैं 
किसी बकरे का कलेजा तल दिया जाता है 
किसी भी फूल को चढ़ जाना पड़ता है 
पत्थर पर 
शंख पर 
गुथ जाना पड़ता है 
डोरे में 
जब भी किसी की इच्छा पूरी होती है 
हिंसा हो जाती है। 
मच्छरों के विरुद्ध 
चूहों के खिलाफ 
और यहाँ तक कि 
गायो, भैसो, और भेड़ों के विरुद्ध भी 
जो देते हैं स्तन्य 
या कि अपने कीमती बाल 
आदमी रोज-रोज 
हत्या करता हैं उन्हें। 
कुत्तों को सड़क पर रौद जाते हैं 
भारी वाहन 
कोई शोक सभा 
आयोजित नही होती 
कितने ही पशु 
प्राण देते हैं 
आदमी के शौक की बलिवेदी पर 
कहीं कोई शहीद स्मारक नहीं बनता। 
काट दिये जाते हैं 
भाग न पाने में मजबूर पेड़ 
और कोई संविधान 
दंड नहीं देता हत्यारों को 
ईश्वर और मनुष्य के बीच 
ऐसी है सांठ-गाँठ 
पत्ता भी नहीं हिलता 
और चलती रहती है 
व्यवस्था। 
कवियों का काव्य 
बहुत सिमित है 
भाषा का साम्राज्यवाद 
अभी भी चल रहा है। 
किस्सा कोताह 
हिंसा होती रहेगी 
दुनिया में 
जब तक हैं इच्छाएं 
आदमी की 
पशुओं की हिंसा तो 
भूख तक सिमित है 
आदमी की हिंसा 
अनंत आकाश की तरह है।