Monday 3 February 2014

बाहर निकलो

बाहर निकलो मेरे दोस्त 
समय धूप हवा पानी सा 
शहरो व गॉँवो के पेट में 
समाया है ,
भूख प्यास तृष्णा या कामना 
कितने ही रूपों में 
यहाँ वहाँ मैंने उसे 
मुँह बाये खड़ा पाया है। 
क्या करोगे तुम 
डँसने को प्रयत्न्शील नाग का 
क्या करोगे इस 
लगी हुई चौतरफा आग का ?

स्त्री

हजार आँखों वाली होती है स्त्री 
एक भेंट में 
तुम देख सकते हो 
उसकी दो आँखें 
दूसरी और तीसरी 
चौथी और पांचवी 
मुलाकातें 
यदि तुम्हारी होती गयी 
और यदि तुमने देखना जारी रखा 
तो हजार आँखे 
तुम्हे दिख जायेंगी 
किसी भी स्त्री की।  
पुरुषोत्तम  
सहस्त्रवाहु हो सकते हैं 
पर स्त्री हमेशा 
हजार आँखो वाली है 
इंद्राणी। 

देखिये

देखिये यह रात 
कैसे बीतती है 
दिन बिताना नही पड़ता 
रात के संग 
बात वैसी नही होती। 
देखिये यह लाश है 
इसे ढोना बहुत मुश्किल है 
जिंदगी के संग 
वैसी बात प्रायः नही होती। 
देखिये 
यह बात 
दर्शन की नहीं 
रोटी-नमक की है 
गजल, गीतो की नहीं 
इसको न ले और बातों की तरह 
और बातों की तरह 
यह बात शायद नही। 

अव्याकरण

न कोई इच्छा है 
न आकांक्षा 
न प्रेम 
न प्रतीक्षा 
पर अपरचित सा तुम्हारा 
मौन रहना 
सालता है। 
तुम हजारो मील मुझसे दूर रहकर क्या करोगी 
एक क्षण भी मिलोगी तो 
निपट मेरा कहीं होना 
गहन तुमको कहीं बिठा देगा 
मुझे तुमसे कुछ नहीं कहना 
सिवा इसके 
तुम मुझे भी देखकर 
सामान्य रहना सीख लो 
हमारे लिए इतना 
और कर दो 
जिस तरह तुम रह लिया करती हो खुश-खुश 
नहीं मिलने पर 
उस तरह 
तुम देख कर भी खुश रहा करो। 

मेरे भीतर

मेरे भीतर सागर गाता है 
हाहाकार नहीं है यह 
आत्मा का शोर उठा करता है 
शत-शत तरंग 
शत-शत घूर्णन 
सूरज को 
चन्द्रमा को 
पास बुलाता है। 
भीतर सब इन्द्रियाँ 
मछलियों सी दौड़ लगाये हैं 
जाने कितने रत्न छिपे हैं 
जाने कितने अभूतघर 
कितने विष के स्रोत 
मेरे भीतर सभी देवता 
सभी राक्षस 
मिलकर मंथन करते रहते हैं
विष्णु बांटते हैं अमृत 
शंकर विष पी जाता है। 

चेहरा चेहरा खिल जाय

चेहरा चेहरा फूल खिले 
तो मन को शान्ति मिले। 

मलिन उदासी हर जाय 
तो मन को शांति मिले। 

भूखे को भोजन मिल जाय 
रोगी को उपचार 
किसी दिगंबर का कपड़ा सिल जाय 
तो शान्ति मिले। 

दुखी दीन के घर में भी 
यदि महक उठे भोजन की 
पल्लिक प्रेसों पर भी 
यदि सुविधा सम्मान मिले। 

देहाती से भी कोई यदि 
ठाट-बाट का दे दे न्योता 
मधुर भाव से बाते करे 
तो मन को शान्ति मिले 

हवा, दूध, पानी, पथ 
प्राणी-प्राणी प्राप्त करे 
खाना का सामान सभी को 
श्रम से सुलभ रहे 
ऊँच-नीच का भेद मिटे 
तो मन को शान्ति मिले 

जागरण : निः शब्द

जागे कौतूहल 
छल-छल-छल भर आये 
नेत्रों में जल। 
रूप प्यासे 
हो रुआँसे 
कहाँ संध्या हम बिता आये 
चुप हुए हम खोजते अपनी जगह 
वृक्ष सोये से लगे 
धरा फैली बहुत व्यापक 
दिष्टि ओछी 
कहाँ से समाये नम 
खोलता हूँ पृष्ठ मैं 
मन की किताबों का 
बंद करता हूँ 
नहीं कोई शक 
हिलता सास लेता। 
यह जागरण निः शब्द