मेरे भीतर सागर गाता है
हाहाकार नहीं है यह
आत्मा का शोर उठा करता है
शत-शत तरंग
शत-शत घूर्णन
सूरज को
चन्द्रमा को
पास बुलाता है।
भीतर सब इन्द्रियाँ
मछलियों सी दौड़ लगाये हैं
जाने कितने रत्न छिपे हैं
जाने कितने अभूतघर
कितने विष के स्रोत
मेरे भीतर सभी देवता
सभी राक्षस
मिलकर मंथन करते रहते हैं
विष्णु बांटते हैं अमृत
शंकर विष पी जाता है।
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