Sunday 26 January 2014

स्थायी खेद है

अपनी पसन्द की जिंदगी 
नहीं मिली 
तो इसमें मेरा क्या दोष है 
मैं तो जीने के लिए विवश हूँ 
जैसे मरने के लिए 
जीने और मरने की दूरी 
एक क्षण की 
शेष सब बेहतर जीने की दूरी है ,
यह नहीं मज़बूरी है। 
यह एक माया है 
जो चल रही है 
गलत है यह कथन भी 
यह एक सुख की खोज है 
जो अधूरी है 
यों तो यह खोज है 
पर यही तो खेद है कि 
यह रोज रोज है। 


रात का सन्नाटा

सुनता हूँ एकांत में 
दूर का सन्नाटा 
कोई मणिधर जैसे बाँबी में प्रवेश कर रहा हो ,
प्राण खींचते जा रहे हैं 
रात कुछ नहीं बोलती 
किवाड़ों पर टंगे परदे 
यूनान के संतो कि दाढ़ी की तरह हिलते हैं 
यहाँ से वहाँ 
समय का रथ घरघराता है 
घोड़ो की टाप मुझे सुनाई देती है 
साथी अनेक हैं 
कोई मन पसंद 
पर कौन मेरे साथ अपनी छाती पर पहाड़ रखे ,
कौन सुने यह सन्नाटा 
जो शब्दों की सेना को मौत की नींद सुला देता है। 


संसद में

संसद का बजट अधिवेशन चालू हुआ 
टकटकी लगाये थी जनता 
चीजें फलों की तरह 
बिना मौसम 
बाजार के वृक्षों पर 
लग जायेंगी 
ढेले डंडे नहीं चलेगें 
विनियम की हवाएँ 
काफी होंगी ,
हमारे झोले चीजो से भर जायेंगे। 
वित्त मंत्री 
कुबेर का स्तवन कर रहे थे 
जनता प्रसाद की आशा में सो गयी। 
सपने में देखा 
वृक्ष वहाँ नही थे ,
कुछ लोंग वहाँ थे जरुर 
पर हवाओं के बारे में कुछ नहीं बता रहे थे। 

इच्छाएँ

१-
इच्छाएँ अजगर की तरह 
पहले लपेटती हैं 
फिर पोर पोर को 
चूर चूर कर 
निगल जाती हैं। 
अस्तित्व खुशबू सा नहीं बचता 
अस्थियाँ जरुर शेष रह जाती हैं। 


२ -प्यार में 
प्यार में कूद पड़ने की इच्छा थी 
कुएँ ही प्यासे थे। 


३- आँखे 
खुबसूरत थीं 
बिना बुलाये बोलती थीं। 



ज्यादातर

जीने के मार्ग पर 
तुम्हारी स्मृतियों के पड़ाव 
ज्यादातर उदास करते हैं 
पर सोचता हूँ कि 
यदि ये पड़ाव नहीं होते 
तो रास्ता कितना लम्बा लगता 
क्यों कि मंजिले नहीं होतीं 
ज्यादातर दुनिया में 
सिर्फ रास्ते होते हैं। 

एक अनुभव यह भी

ज्यादातर आदमी पागल होतें हैं
शेष उनसे ज्यादा ही।
निर्दोष या तो बच्चे हैं
या मुर्ख।
औरतें सिर्फ प्रतीक्षा करती हैं। 

डेरा

इस दौड़ से थके 
तो रुके 
दोनों आँखे बन्द हुई 
तो तीसरा नेत्र खुल गया 
कोई तरकीब नहीं थी 
कविता में होने के अलावा 
गो इतने से कविता नहीं थी पूरी 
मैं ही था पूरा का पूरा। 
असंख्य तो नहीं 
गिनने का समय भी नहीं था 
उठ रहे थे पकड़ने को मुझे अनेक हाथ 
वे किसके थे 
नहीं जानता 
भागने का कोई उपाय नहीं था 
हम कविता को ही पुकार सकते थें 
पुकारा ,
कविता कहाँ आती है पास 
शब्द आयें तो आयें 
उनका काम है,यहाँ वहाँ भटकना 
किसी के पास रहना 
कुछ लोंग इस्तमाल के लिये होतें हैं। 
अतः मुझे प्रकृति में भागना पड़ा 
जैसी भी थी उप्लब्द्ध 
कोई चारा नहीं नहीं था 
कि मैं उसमें लीन हो जाऊँ 
प्रकृति नहीं थी मेरी विश्राम स्थली 
फिर भी मैं आखिर कहाँ जाऊँ 
कहाँ सुस्ताऊँ ?