Friday 28 February 2014

इच्छाएँ

छोटी-छोटी इच्छाएँ 
जीवन का प्रसंग 
अविरल घोरतम इच्छाएँ 
कुछ समाधान 
संतोष, नियति, ईश्वर की मरजी 
और संयोग। 
मैं पिछली कई शताब्दियों से 
बूढ़ी माँ की कहानियों 
और बड़े बुजुर्गों की हिदायतों में 
इन शब्दों को सुन रहा हूँ ,
मैं कुछ कर नहीं सकता 
इसका तात्पर्य 
मैं इसे स्वीकार करता हूँ ,
इन शब्दों पर 
किसी का राजी होना 
सत्य नहीं हो सकता 
कभी विद्रोह 
बिलकुल असफल नहीं होता। 
उठो मेरे भीतर इच्छाओं 
तुम्हारे कारण जीवित हूँ 
और लड़ो मेरी इच्छाओं 
सामने अभेद्य पर्वत हो तो भी क्या ,
कुछ तो हो कर रहेगा 
और कुछ न हुआ तो भी क्या 
तुम तो बचे रहोगे 
जीवित। 

यह दिलासा नही है

कभी भी कम नहीं होता जीवन 
वह प्रतिक्षण बढता हुआ है 
एक एक बच्चा 
हजारों बड़ो के जीवन से 
ज्यादा समुत्सुक 
प्रकृति के रहस्य को 
जानने की कोशिश में 
कितना जीता है 
पृथ्वी पर इसका कोई हिसाब नहीं 
झरने दो पत्तो को 
वसंत में सहस्र-सहस्र 
पत्ते हरे-हरे हो जायेंगे 
मुरझाने दो फूल को 
सुबह मैदानो में 
नए-नए फूल उग जायेंगे। 
जो बचे हैं 
वे ही ज्यादा हैं 
जीवन हमेशा ज्यादा ही रहता है 
बेचारी मृत्यु की तमाम 
कोशिशों के बावजूद।