Thursday 6 March 2014

विपत्तियों में

ढकेले रहेंगे हम विपत्तियों को 
जैसे कूड़े को अपने द्वार से बाहर कर 
कही दूर कर आते हैं झाड़ू से हम 
पर फिर वे आ जाते हैं जैसे 
वैसे आफते आही जाती हैं 
घर में,  दरवाजे पर 
दिल में और देह में। 
आदमी -आदमी के काम आता है 
इसीलिए कि हर आदमी के 
घर और बाहर विपत्तियाँ आती हैं 
सब अपनी-अपनी विपत्ति में पड़े लोग 
दूसरों की विपत्ति में 
ढाढस ऐसे बांधते हैं 
जैसे उन्हें ढाढस बध गयी हो 
मुकम्मल। 
हम जानते हैं सब 
पर जानना कितने काम का होता है 
ऐसे अवसर पर। 
हमें न जानने जैसा 
होना और बरतना 
कितना सहारा देता है 
विपत्तियों में। 

बच्चे

बच्चे आते हैं पास 
और ऐसा कोई प्रश्न करते हैं 
जो उत्तर के रूप में 
केवल बच्चे को और अधिक 
बिम्ब में बदल देते हैं 
बच्चा प्रश्न करते समय 
बच्चा नहीं होता 
पर जब भी आप बच्चे को 
प्रश्न करते देखते हैं 
तो वो बच्चा ही रहता है 
उसके छोटे-छोटे हाथ 
छोटा सा मुँह 
और छोटी-छोटी 
पगध्वनियाँ 
सयानों कि छाती में 
संगीत की तरह प्रबंध करती हैं 
बच्चा नायाब है दुनिया में 
सृजन का इससे अच्छा 
उदहारण नहीं मिलेगा 
कला की दुनिया में।  

भरोसे पर भरोसा

गैर भरोसे की दुनिया में भी 
आदमी को भरोसा करना ही पड़ेगा 
अपने हाथ पर भरोसा कि वह 
निवाले को मुँह तक ले जायेगा 
और अपने उत्सर्जन तंत्र का भरोसा 
कि वह वहिर्गमन करेगा ही 
अपने सांसों पर भरोसा 
कि वह चलेंगे 
और दिल और फेफड़े को मिलता  रहेगा 
आक्सीजन ,
रोटी ,आटे और नमक पर 
भरोसा करना पड़ेगा 
और बेवफा से बेवफा औरत पर 
यह भरोसा तो करना ही पड़ेगा 
कि यदि जनेगी तो वही जनेगी 
पुरुष जन नहीं सकता 
कोई बच्चा। 
आग पर भरोसा 
पानी पर भरोसा 
और अपने खुशियों या ग़मों पर भरोसा  
अब करना ही पड़ेगा आदमी को 
तो वह क्यों कहता रहेगा कि 
अब भरोसे के काबिल नहीं दुनिया।