Sunday 2 March 2014

कविता की आदत


इसी तरह के मौन सन्नाटे में 
जीभ को साधते रहते हैं हम 
अपारदर्शी भविष्य 
और चमकीले अतीत में 
वर्तमान ऐसे लुढकता है जैसे 
कोई पत्थर लुढक रहा हो 
और गंतव्य का पता न हो 
हमारा असली भविष्य 
हम नहीं लोग देखेंगे जो बचे रहेंगे। 
इस अपार असमझ बूझ को 
दर्ज करते रहना 
कविता की आदत है। 

चुप रहने दो मुझे

समाधि के स्वाद की तरह 
मौन के 
आस-पास शब्द 
छोटे-छोटे बच्चों की भाँति 
उधम मचाते हैं 
उन्हें देखने की चेष्टा में 
मैं असहजता का अनुभव करता हूँ ,
क्या कर सकता हूँ 
मंदिर के सामने मंगलवार के दिन 
पंक्तिबद्ध दरिद्रों ,अपंगो ,कोढ़ियों के लिए मैं 
कुछ भी तो नहीं कर सकता 
ये शब्द किस काम के हैं 
और कविता भी किस काम की  
आने वाला है जन्मदिन 
एक समाजवादी का 
मुझे वहाँ जाना है 
वह भी तो कुछ नहीं कर सकते 
इन दरिद्रों के लिए 
परमाणु डील तो होगा 
पर बिजली भी तो नहीं मिटा सकती 
भूख के विराट अन्धकार को 
जो तीसरी दुनिया के तमाम लोगो की 
पेट और छाती पर फैला है 
चुप रहने दो मुझे 
बोलने दो दुनिया को। 

मरने से कुछ नहीं मिलता

जियेंगे तो दुनिया देखेंगे 
मर गये तो क्या देखेंगे 
लोग देखेंगे 
हम तो नहीं देखेंगे 
पैसा नहीं भी रहेगा तो 
धुधली आँखे रहेंगी 
और चल नहीं पाये तो 
बैठे-बैठे देखेंगे 
जो लोग चलेंगे 
उनमे से कोई तो 
हमारे पास से गुजरेंगे। 
किसी बागीचे में फूल नहीं 
तो सामने के खाली जगह पर 
उगी घास देखेंगे 
पेड़ पर बैठे चिड़िया न बैठे 
उड़ते कौवे को देखेंगे ,
जो सुन्दर था न देख सकें 
उन्हें कूड़ा होने पर देखेंगे 
कुछ तो देखेंगे। 
आँखे नहीं बचेगी तो 
स्पर्श अनुभव करेंगे 
कान नहीं रहेंगे 
होने की हरकत महसूस करेंगे ,
हर हाल में जीना 
बेहद खूबसूरत है 
मरना बदसूरत तो नहीं है पर 
मरना तो कुछ भी नहीं देखना है। 
देखेंगे ईश्वर 
नरक 
और स्वर्ग 
जीते ही 
मरने से तो कुछ नहीं मिलता 
न ईश्वर 
न नरक 
न स्वर्ग। 

कविता की भी मुश्किलें होती हैं

कविता खटाई में पड़ जाती है 
जब जिंदगी की जीभ पर 
बहुत तीखी मिर्ची पड़ जाती है 
जैसे पाँव के नीचे गन्दा पड़ जाने से 
आदमी लगड़ाने लगता है 
कविता हकलाने लगाती है। 
प्रेम की नदियां समुद्र में नहीं पहुंचती 
और देवता की जाति में न पैदा होने के कारण 
अमृत मिल भी जाय 
तो सिर और धड़ को अलग होना पड़ता है ,
कोई भी कविता 
सच्चाई नहीं झेल सकती 
क्यों कि वह आदमी नहीं होती 
और होती भी है तो कुछ ज्यादा 
या कम। 
मेरे मित्रों 
बहुत मुश्किल है 
बहुत सी हालातों में कविता 
संवाद का अवसर 
शायद हमेशा नहीं होता 
शब्द पर्याप्त नहीं होते 
और होते भी हैं तो 
इतने ज्यादे पर्याप्त हो जाते हैं कि 
वह - वह नहीं बोलते 
जो बोलना चाहिए ,
कविता भी एक स्वीकृत मुहावरे की तरह है 
और जिंदगी पूरी की पूरी 
कभी स्वीकृत नहीं होती।