Sunday 2 March 2014

कविता की भी मुश्किलें होती हैं

कविता खटाई में पड़ जाती है 
जब जिंदगी की जीभ पर 
बहुत तीखी मिर्ची पड़ जाती है 
जैसे पाँव के नीचे गन्दा पड़ जाने से 
आदमी लगड़ाने लगता है 
कविता हकलाने लगाती है। 
प्रेम की नदियां समुद्र में नहीं पहुंचती 
और देवता की जाति में न पैदा होने के कारण 
अमृत मिल भी जाय 
तो सिर और धड़ को अलग होना पड़ता है ,
कोई भी कविता 
सच्चाई नहीं झेल सकती 
क्यों कि वह आदमी नहीं होती 
और होती भी है तो कुछ ज्यादा 
या कम। 
मेरे मित्रों 
बहुत मुश्किल है 
बहुत सी हालातों में कविता 
संवाद का अवसर 
शायद हमेशा नहीं होता 
शब्द पर्याप्त नहीं होते 
और होते भी हैं तो 
इतने ज्यादे पर्याप्त हो जाते हैं कि 
वह - वह नहीं बोलते 
जो बोलना चाहिए ,
कविता भी एक स्वीकृत मुहावरे की तरह है 
और जिंदगी पूरी की पूरी 
कभी स्वीकृत नहीं होती। 

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