Friday 31 January 2014

एक अदना दिया जला-जला जाय

दिल तो अक्सर बुझा बुझा जाय 
एक अदना दिया जला जला जाय 
गम है, रात है, खामोशी भी 
कोई परी हिला हिला जाय 
कोई पक्षी गुरेज से बोले 
कोई नन्ही सी शाख हिल जाय 
आ गये हम कहीं समन्दर में 
संगम बाहर हुयी हुयी जाय 
अबकी मिलते हैं फिर मिले ना मिले 
दो घडी साथ रह अलग जायें 
आस्तीनों में साँप पहले थे 
आज सीने में वे निकल आये 
यह हवा उस हवा से बेहतर है 
काश ! आबो हवा बदल जाये 
झूठ सच क्या है यह खुदा जाने 
कौन से घाट आदमी जाये। 


बी.डी.एन शाही की मृत्यु पर

क्यों जल्दी ही मार दिया जाता है 
अन्याय से लड़ता हुआ आदमी 
और वह तो शब्दों से लड़ रहा था 
दुश्मन को मारने के लिए नहीं 
उसकी आत्मा को जगाने के लिए 
दुश्मन क्यों नहीं चाहता की 
उसकी आत्मा जगे 
उसकी नींद टूटे 
क्योंकि दुश्मन अपने को अपना 
दुश्मन नहीं देखना चाहता 
वह मारा गया 
जल्दी ही मार दिया गया 
क्यों कि ईश्वर उसके दुश्मनो के पक्ष में था 
और ईश्वर हमेशा भक्त वत्सल रहा है। 
दुश्मन और ईश्वर दोनों नहीं जानते कि 
उसकी शब्दावली हमेशा बची रहती है 
जो अन्याय से लड़ती जबान बोलता है,
आत्मा को लगता है 
गलत आदमी की देह में 
सही आत्मा के फूल खिलाता है। 
वह जिन्दा रहता है शताब्दियों तक 
मरता, मार खाता आदमी ऐसा वह 
हमेशा अमर रहता है 
वह नही मरता जैसे ईश्वर मर जाता है 
अपने भक्तो के साथ-साथ। 

उदासी

उदास तो तिनका भी था 
पर चुप था 
हवा में हिल रहा था 
मेरे मन से मगर मिल रहा था 
उदास शाम भी 
अकेली पथराई आँखों से 
बादल के टुकड़े देख रही थी 
पर मुझसे मिलने के पहले 
कुछ कम उदास थी,
यह उदासी किसी खेत के सिवान पर 
मेरे साथ मेरे जन्म के साथ पैदा हुई 
बढ़ी और अब अधेड़ हो गयी है,
आज की शाम मैंने उसे 
दर्पण में नहीं पानी में देखा 
और जानना चाहा पहली बार 
कि कौन-कौन उदास है,
उनको मैं प्यार कर पाऊँ बेहद 
क्यों कि उनमे से किसी के द्वारा ही 
तिनके की, शाम की उदासी 
हंसी में शामिल होगी।  

प्रार्थना

भोर हुई तो उगी प्रार्थना 
अब न करूंगा कभी शिकायत 
सब तो ईश्वर ही हैं, सबमें दोषों का दर्शन 
उचित नहीं है, केवल निज दोषों का दर्शन 
बहुत-बहुत है। 
किन्तु सुबह की किरणों में ही 
ऎसी कुछ मादकता होती 
भूल गया संकल्प 
और अनथक प्रपंच का सार हो गया 
दुनिया में रहते-रहते
मैं दुनिया का ही यार हो गया। 
तुम मेरे प्रभु ; भीतर जागृत 
औघर दानी 
मेरा भी उपकार करो  
मेरी ऐसी चित्त-दशा कर दो अपनी सी 
सबको प्यार करो। 

Thursday 30 January 2014

साथ में होना

साथ में होना 
तुम्हारे 
नयन सुख है 
प्रान सुख है 
फूल खिला है। 
साथ में होना 
तुम्हारे
मिलन सुख है 
प्रणय सुख है 
फूल झरना है। 
साथ में होना 
तुम्हारे 
परम सुख है
विगत दुख है 
दीप जलना है।   

छोटी कविताएँ

१ 
धुन रहा है काल प्रतिपल 
तदापि अपनी राह चलता 
मैं उठाये बोझ कंधो पर 
व्यर्थ की ही सही मंजिल तक 
जा रहा हूँ। 
हल करूंगा जो रुकावट बन खड़ी है 
समस्याएँ जानता हूँ,
आदमी का रथ बड़ा है,
पर हवा का रुख 
बखेड़े सा खड़ा है। 

२ 
जिंदगी भी क्या कि जिसका 
सिर गायब है 
बीच में मैं क्या 
सभी उत्तर नदारत हैं 
भूख, निद्रा, सुख-दुखों का 
सिलसिला है 
जो मुझे भी अन्य लोगों की तरह 
शायद विरासत में मिला है। 

मनोरोग के बरक्स मैं

मन नहीं लगता
चिकित्साविदों की दृष्टि में
यह मानस रोग है,
कारण, निवारण करना चाहिए
पर अपने हाथ में कारण भी तो नहीं
वस्तुओं के रूप में लोग नहीं हैं
कि उन्हें अपने हिसाब से धर दिया जाय
हिटलर मैं हो नहीं सकता
कठेस धार्मिक होने से रहा,
अब बची कविता
शब्दों का शस्त्र संभाले
चला जा रहा हूँ
शाम भी होती जा रही है,
रोशनी किसी काम नहीं आ रही है।
                       
                               ( ६/११/९० )

Wednesday 29 January 2014

ये फूल

ये फूल उनका है
उन्ही का है
गंध उनकी नहीं
सभी की है।
ये घर उनका है
उन्ही का है
राह उनकी नहीं
सभी की है।
कुछेक चीजें है
जो कि उनकी है
सभी की है
कुछेक और भी चीज़े हैं
इस जहाँ में है
वे न उनकी है
न सभी की हैं।  

सागर

आज बहुत सागर कि याद आ रही
कहतें हैं
सागर की याद
मृत्यु की सूचना है
अशुभ है
पर क्या करें सागर तो टिक गया है
स्मृति में।
सागर से मिले थे
लौट आये थे
सागर से मिलना फिर क्या हुआ
सागर से मिलना तो मिल जाना है सागर में
सागर ही हो जाना है।
अधूरी भेट याद बन सता रही है
कैसा होता है सागर
सागर की सी आँख चाहिए
कैसा निःस्वन होता है सागर का
गहरा बहुत गहरा हृदयतल चाहिए
आह हाहाकार सागर का
बुलाता है
सागर से मिले और लौट आये
अपने छोर को अछोर होने नहीं दिया
अब मैं आऊंगा सागर
तुममें मिल जाऊंगा। 

चौबीस घंटे

१ 
नींद में भी टंटा खड़ा रहता है
जिंदगी एक शब्द है
पर उसका अर्थ
चौबीस घंटे कोचता रहता है।

२ पतझर 
सड़क के किनारे के वृक्ष
पत्ते उलीच रहे हैं
हम गुजरते हुए वन हैं
रुकेंगे तो
बसन्त दुबारा नहीं आयेगा।

३ प्यार
कोई फूल एक बार महँका
गँध रह गई
न पौधा रहा न मौसम
बेचैनी तुम्हारा नाम आत्मा।

४ विद्या 
गंवारो का श्रम
अपने हक़ में
इस्तेमाल करने की शाजिश
मुक्ति मिले न मिले
भोग तो मिल ही रहा है
बिना परिश्रम के।

Tuesday 28 January 2014

शिवराधा

जैसे ही उसने कहा
आग
वह जल गई
मैं कुछ देर तक तापता रहा
वह राख में बदल गई
बची हुई राख के कुछ कण
मैंने मस्तक पे लगाया
आज सचमुच मैंने
शिवराधा का
सम्पूर्ण फल पाया। 

फूलों के विषय में

कुछ लोग टटके फूलों की तरह खड़े हैं
शेष मुरझाये फूलों की तरह हिले हैं ,
मैंने टहनी से कहा
पत्तो से कान में मंच की तरह
बताया
इन्हे धारण किये रहो ,
जो खिलें हैं
वे भी कुछ हिले हैं
पर मुझे फूलों का मुरझाना अच्छा नहीं लगता
बागवानी का विशेष शौक नहीं
वक्त बागवानी का नहीं है
खेती-बारी का है,
उससे फसलें होती हैं
और वे काटी भी जाती हैं
हर फूलों पर ध्यान जाता है
गंध का क्या ठिकाना
अभी है
अभी हवा के साथ उड़ जायेगी।
पर फूल तो हमेशा हैं
खिलने, मुरझाने, और
तोड़े जाने, गिर जाने के पूर्व
हमेशा और हमेशा।  

पत्नी की स्मृति

तब मैं तुम्हे याद करता हूँ
जब कोई याद नहीं आता है 
पत्नी की याद 
भला कोई करता है ?
पत्नी घर में हो 
तो घर उसे याद नहीं करता 
उसी को धारण करता है 
घर दीवारों से 
भुजाओं के घेरे बनाता है क्या 
या पत्नी घर की भुजाओं में 
स्वतः चली आती है 
या कि उसी में नित्य विद्यमान रहती है। 
मैं घर की  तरह 
पत्नी को याद करता हूँ 
जो अपनी गृहस्थी की चिन्ता में 
अपने बच्चों के साथ 
अपनी आँखों और इच्छाओं के साथ 
झगड़ते हुए घर में नहीं है 
और घर उसकी प्रतीक्षा कर रहा है। 

Sunday 26 January 2014

स्थायी खेद है

अपनी पसन्द की जिंदगी 
नहीं मिली 
तो इसमें मेरा क्या दोष है 
मैं तो जीने के लिए विवश हूँ 
जैसे मरने के लिए 
जीने और मरने की दूरी 
एक क्षण की 
शेष सब बेहतर जीने की दूरी है ,
यह नहीं मज़बूरी है। 
यह एक माया है 
जो चल रही है 
गलत है यह कथन भी 
यह एक सुख की खोज है 
जो अधूरी है 
यों तो यह खोज है 
पर यही तो खेद है कि 
यह रोज रोज है। 


रात का सन्नाटा

सुनता हूँ एकांत में 
दूर का सन्नाटा 
कोई मणिधर जैसे बाँबी में प्रवेश कर रहा हो ,
प्राण खींचते जा रहे हैं 
रात कुछ नहीं बोलती 
किवाड़ों पर टंगे परदे 
यूनान के संतो कि दाढ़ी की तरह हिलते हैं 
यहाँ से वहाँ 
समय का रथ घरघराता है 
घोड़ो की टाप मुझे सुनाई देती है 
साथी अनेक हैं 
कोई मन पसंद 
पर कौन मेरे साथ अपनी छाती पर पहाड़ रखे ,
कौन सुने यह सन्नाटा 
जो शब्दों की सेना को मौत की नींद सुला देता है। 


संसद में

संसद का बजट अधिवेशन चालू हुआ 
टकटकी लगाये थी जनता 
चीजें फलों की तरह 
बिना मौसम 
बाजार के वृक्षों पर 
लग जायेंगी 
ढेले डंडे नहीं चलेगें 
विनियम की हवाएँ 
काफी होंगी ,
हमारे झोले चीजो से भर जायेंगे। 
वित्त मंत्री 
कुबेर का स्तवन कर रहे थे 
जनता प्रसाद की आशा में सो गयी। 
सपने में देखा 
वृक्ष वहाँ नही थे ,
कुछ लोंग वहाँ थे जरुर 
पर हवाओं के बारे में कुछ नहीं बता रहे थे। 

इच्छाएँ

१-
इच्छाएँ अजगर की तरह 
पहले लपेटती हैं 
फिर पोर पोर को 
चूर चूर कर 
निगल जाती हैं। 
अस्तित्व खुशबू सा नहीं बचता 
अस्थियाँ जरुर शेष रह जाती हैं। 


२ -प्यार में 
प्यार में कूद पड़ने की इच्छा थी 
कुएँ ही प्यासे थे। 


३- आँखे 
खुबसूरत थीं 
बिना बुलाये बोलती थीं। 



ज्यादातर

जीने के मार्ग पर 
तुम्हारी स्मृतियों के पड़ाव 
ज्यादातर उदास करते हैं 
पर सोचता हूँ कि 
यदि ये पड़ाव नहीं होते 
तो रास्ता कितना लम्बा लगता 
क्यों कि मंजिले नहीं होतीं 
ज्यादातर दुनिया में 
सिर्फ रास्ते होते हैं। 

एक अनुभव यह भी

ज्यादातर आदमी पागल होतें हैं
शेष उनसे ज्यादा ही।
निर्दोष या तो बच्चे हैं
या मुर्ख।
औरतें सिर्फ प्रतीक्षा करती हैं। 

डेरा

इस दौड़ से थके 
तो रुके 
दोनों आँखे बन्द हुई 
तो तीसरा नेत्र खुल गया 
कोई तरकीब नहीं थी 
कविता में होने के अलावा 
गो इतने से कविता नहीं थी पूरी 
मैं ही था पूरा का पूरा। 
असंख्य तो नहीं 
गिनने का समय भी नहीं था 
उठ रहे थे पकड़ने को मुझे अनेक हाथ 
वे किसके थे 
नहीं जानता 
भागने का कोई उपाय नहीं था 
हम कविता को ही पुकार सकते थें 
पुकारा ,
कविता कहाँ आती है पास 
शब्द आयें तो आयें 
उनका काम है,यहाँ वहाँ भटकना 
किसी के पास रहना 
कुछ लोंग इस्तमाल के लिये होतें हैं। 
अतः मुझे प्रकृति में भागना पड़ा 
जैसी भी थी उप्लब्द्ध 
कोई चारा नहीं नहीं था 
कि मैं उसमें लीन हो जाऊँ 
प्रकृति नहीं थी मेरी विश्राम स्थली 
फिर भी मैं आखिर कहाँ जाऊँ 
कहाँ सुस्ताऊँ ?