Saturday 12 April 2014

भारी हो जाता है सबकुछ

धीरे-धीरे मन भारी हो जाता है
शाम इबारत लिखती है अवसादों की
धीरे-धीरे तन भारी हो जाता है |
भारी हो जाता है समय
भारी और लगते हैं
कंधों पर ठहरे
जिम्मेदारियों के बोझ
लोगों की प्रतिकूल बहुत छोटी-छोटी बातें भी
भारी लगाने लगती हैं,
समय आदमी को घर में
बंद कर
बाहर से ताला लगा देता है |
भीतर आदमी धम्म से बैठता है
या अनमना लेट जाता है,
अब जाने कब ताला खोले समय
चाभी उसी के पास है,
उसकी प्रतीक्षा
भारी लगने लगती है |
कहाँ तक किया जाए भारी पन का बयान

हर शब्द बहुत भारी लगने लगता है | 

बूढ़े

बूढ़े दिमाग से
मैदान के हिस्से में
एक छोटी जगह चुनते हैं
और अपनी बेतुकी धुन में
ऐसे बैठे रहते हैं
गोया हरकतें
उनकी दुश्मन हों |
बूढ़ा सिर्फ जरुरी हरकत करता है
मैं चीख कर बताता हूँ
और बूढ़े का व्याकरण
बदल जाता है |

दर्जी

उसकी मशीन
कैची और उसके पास है फीता,
वह पैर चलाता है
सधे हुए,
और डोर लगाने के लिए
बड़ी सधी उगलियों का प्रयोग करता है,
कपड़े की नाप लेते हुए
दर्जी बड़े ध्यान से देखता है,
वह आदमी को  
उसकी कमर, कलाई, उसके कंधे
के आधार पर जानता है |
दर्जी सिल रहा है कपड़े
और कपड़े लहरा रहे हैं
आ-जा रहे हैं
देश-विदेश,
दर्जी का हाथ
ट्रेन में, वायुयान में
घाटी पर आसमान में,
उपरी कैची लगातार चल रही है
वह सिल रहा है, काट रहा है,
दर्जी सभ्यता के भीतर
एक जरुरी मशीन है

जिससे आत्मा वस्त्र प्राप्त करती है |