Saturday 12 April 2014

भारी हो जाता है सबकुछ

धीरे-धीरे मन भारी हो जाता है
शाम इबारत लिखती है अवसादों की
धीरे-धीरे तन भारी हो जाता है |
भारी हो जाता है समय
भारी और लगते हैं
कंधों पर ठहरे
जिम्मेदारियों के बोझ
लोगों की प्रतिकूल बहुत छोटी-छोटी बातें भी
भारी लगाने लगती हैं,
समय आदमी को घर में
बंद कर
बाहर से ताला लगा देता है |
भीतर आदमी धम्म से बैठता है
या अनमना लेट जाता है,
अब जाने कब ताला खोले समय
चाभी उसी के पास है,
उसकी प्रतीक्षा
भारी लगने लगती है |
कहाँ तक किया जाए भारी पन का बयान

हर शब्द बहुत भारी लगने लगता है | 

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