धीरे-धीरे मन भारी हो जाता
है
शाम इबारत लिखती है अवसादों
की
धीरे-धीरे तन भारी हो जाता
है |
भारी हो जाता है समय
भारी और लगते हैं
कंधों पर ठहरे
जिम्मेदारियों के बोझ
लोगों की प्रतिकूल बहुत
छोटी-छोटी बातें भी
भारी लगाने लगती हैं,
समय आदमी को घर में
बंद कर
बाहर से ताला लगा देता है |
भीतर आदमी धम्म से बैठता है
या अनमना लेट जाता है,
अब जाने कब ताला खोले समय
चाभी उसी के पास है,
उसकी प्रतीक्षा
भारी लगने लगती है |
कहाँ तक किया जाए भारी पन का
बयान
हर शब्द बहुत भारी लगने
लगता है |
बहुत सुंदर !!
ReplyDeleteबेहतरीन
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