Sunday 2 February 2014

रह गए अन्तः करण में

मैंने मोगरे का फूल नहीं देखा 
उसे मैंने ओठों की तरह 
प्रेम की किताबों में देखा है 
मैंने गुलाब के फूल देखे हैं 
तुम्हारे ओठों की तरह 
मुस्कुराते हुए फिर 
आखों से झरते हुए 
पढ़े हुए 
देखे हुए 
दोनों ही फूल थे 
देखे गए 
पढ़े गए 
झर गए 
रह गए तो केवल तुम्हारे ऒठ 
अन्तः करण में 
प्रतीक्षित चुम्बन की तरह। 

चिंता मुझे उनकी है

अपनी ही बनायी दुनिया 
घेरती है चारो ओर से 
लगाती है कांटे नागफनी 
ऊँची चहारदीवारी 
जड़ती  है सीसे 
गेट बनाकर 
हथियार बंद संतरी बैठा देती है। 
भागोगे तो कैसे तुम 
अपाहिज पहले कर रखा है उसने 
टुकुर-टुकुर देखो 
घेरे में बैठकर आकाश 
घेरे के अंदर 
लगे पेड़ पौधे 
फूल पत्ते
रंग बदरंग होते इट पत्थर। 
मेरा तो जीवन पहले से ही आकाश था 
भविष्य में भी आकाश रहेगा 
चिंता उनकी है 
जो उगा रहे हैं नागफनी 
घेरे लगा रहे हैं यथाशक्ति 
सबको 
अपना समय इसी बंधन को 
किये जा रहे हैं समर्पित।   

यह भी एक बसंत है

यह भी एक बसंत है 
कि द्वार-द्वार पर 
लटक रहे हैं ताले 
शहर कहीं और घूमने चला गया है 
लौटकर पूछता हूँ 
शहर, घर और मित्रों का पता 
कोई ठिकाना बताता नहीं 
एक कुत्ता राह में पड़ा है ,
एक औरत कूड़ा फेंक कर जा रही है 
लोग है भी और नहीं भी 
यह कैसा बसंत है 
कि बतास गायब है 
पर है यह बसंत ही 
कि उसके लक्षण खोज रहा हूँ मैं। 

प्रेम कहानी

जो रह नहीं गयी 
वह उपेक्षा थी 
आँख खोलने वाली 
यद्यपि उसे कानों ने सुना था 
जैसे आकाश सुनता है समुद्र को 
और कुछ और दूर हो जाता है 
मैंने सुना था 
मैं आकाश की तरह दूर हो गया 
जैसे हर कहानी का अंत होता है 
उसी तरह मेरी कहानी का अंत हुआ 
अब यह कहने की जरुरत नहीं 
कि यह भी एक प्रेम कहानी थी। 

किसान

किसान ने बादल की तरफ देखा 
वे चले गये थे 
किसान ने धरती की ओर देखा 
वह सूख रही थी 
बेटे की ओर देखा 
वह बे रोजगार था 
पत्नी की ओर देखा 
उसकी साड़ी फटी हुई थी 
जेब की ओर हाथ बढ़ाया 
उसमे दो रुपये थे 
घर में देखा 
बर्तन, कुछ अनाज 
कुछ कंडे, उपले लकड़ियों का ढेर। 
किसान ने सोचा 
नमक है
तो भोजन का उपाय है 
और ,और , और 
और तो कुछ भी नही है 
किसान के पास 
क्या किसान को किसी 
और देश में होना चाहिए।  

कथरी

वह चौराहे पर मिल गया 
हड़बड़ी में था 
उसके थैले में क्या था 
मैंने पूछा नही ,
उसने कहा 
दोस्त, बहुत मुश्किल में हूँ 
दाल अट्ठारह रुपये 
तेल छत्तीस रुपये 
आटा तीन रुपये 
तनख्वाह बारह सौ रुपये 
मकान भाड़ा चार सौ 
कैसे चलेगा ?
मैंने कहा मैं भी मुश्किल में हूँ 
तनख्वाह छः हजार रुपये 
इनकम टैक्स एक हजार रुपये 
बिमा, पी.एफ. कटौतियां 
हाथ में आता तीन हजार रुपये 
मकान भाड़ा एक हजार रुपये 
बचता दो हजार रुपये 
जीने का खर्च बढ़ा 
रुपये का मूल्य घटा ,
दोनों की कथरी खुली 
दोनों ने एक दूसरे के सामने 
अपना-अपना कम्बल झाड़ दिया,
हमने साथ-साथ चाय पिये 
पान खाये 
अलग-अलग दिशाओ में चले गये ,
क्या हम लोग कथरी सीते रहेंगे 
कौन है वो जो कालीन बिछाते हैं 
वे कौन सा धंधा अपनाते हैं। 

शशि प्रभा

तुम देर से आयी दुनिया में 
देर से मिली 
देर से खिली 
नहीं तो मैं तुम्हे प्यार करता 
तुम्हारी खनकदार हंसी को 
तुमसे रोज थोड़ा-थोड़ा मांग लेता 
बंद करता जाता 
दिल की तिजोरी में 
कि वे प्यार के खजाने बनते जाते
जिंदगी के तालाब में 
मछली की तरह 
तुम होती 
जल होता 
लहर होती 
कलकल होता। 
तुमने देर कर दी शशि प्रभा 
देर कर दी। 

तुम चुप थी

तुम चुप थी 
तुम्हारे सवाल में 
पर चुप्पी न थी 
वह एक और सवाल के लिए 
सवाल था ,
मैं उसका जवाब था 
मैं चुप था 
कि तुम सवाल के लिए 
कोई सवाल न करो ,
तुम चुप थी 
कि मैं कोई जवाब न 
बनूँ। 

वह स्त्री

वह स्त्री 
अपने पति के लिए 
प्यार नहीं देह सजाती है 
अच्छा है उसका प्यार 
पति परमेश्वर की इच्छानुसार 
वह सजती है सवरती है। 
वह स्त्री 
प्यार की प्रतीक्षा करती-करती 
बूढ़ी -बूढ़ी  होती जाती है 
उसका पति 
उसकी इच्छा की 
परीक्षा लेना चाहता है 
शायद ?

गरीब आदमी की चिंता

सुबह-सुबह 
चाय की चिंता 
घर में कुहराम की चिंता 
आ गए हित-नात की चिंता 
बढ़ रहे कर्ज की चिंता
बेटे की रोजगार की चिंता 
बेटी के ब्याह की चिंता 
गिर रही दीवार की चिंता 
पेड़ नहीं छतनार की चिंता
छोटी-छोटी इच्छाएँ 
छोटी-छोटी बातें 
प्यार भी दाल-रोटी की तरह 
उसे भी बनाये रहने की चिंता। 
बड़े लोग मिल गए 
तो हसने की विवशता 
अपने से भी गरीबों को देखकर 
कुछ ज्यादा घबड़ाये रहने की चिंता 
देश की खबर में अपनी खबर 
कभी न मिलने की चिंता। 

सपना सच मानती है औरत

वह औरत सपने में रहती है 
कभी भी कर लेती है 
आँखे बंद ,
सपने में यार से मिलती है 
बिछुड़ती है। 
सपने के बाहर एक भीतरी दुनिया है 
उसके यार भी हैं 
रिश्तेदार भी 
वह उनसे न मिलती है 
न बातें करती है। 


अहैतुक

दिए बिना रहा नही जाता 
सम्पूर्ण दिए बिना !
क्यों कि कुछ ही शेष रह जाय 
तो देना रस नही बनता 
कोई समूर्ण नही घटता !
जैसे बीज बिना मिटे नही बनता वृक्ष 
और वृक्ष बिना माहलाहित हुए 
नही बनता प्रसून !
वे स्वीकारे न स्वीकारे !
जो जानते हैं रहस्य जीवन का 
वे मिटेंगे सम्पूर्ण 
वृक्ष बनेंगे 
रंग विरंगे फूलों से सिलेंगे 
सृष्टि के नयनों की आगवानी 
हमेशा-हमेशा करेगें। 

प्रिय जन जब बिछुड़ते हैं

प्रिय जन जब बिछुड़ते हैं 
जीवन के घर बाहर छोड़ जाते हैं 
अपने अस्तित्व के टुकड़े 
कभी आधा चेहरा 
कभी कोई आधा अधूरा शरीर 
राह में 
घर में 
दूकान में 
कभी उनकी हँसी 
कभी बालो की सेटिंग 
कभी कोई तकिया कलाम ,
गैर सिलसिलेवार उनकी 
स्मृति के खंड-खंड 
चुप उदास करते जीवन की 
छाया में घुल-मिल जाते हैं ,
मृत्यु को प्राप्त 
आत्मीय मनुष्य 
कितने वजनी हो जाते हैं 
सोच कर डर भी लगता है ,पर साथ-साथ 
होती है आत्मा के किसी कोने में 
एक शाश्वत ख़ुशी कि 
हमारे बाद भी लोग जियेंगे 
और इसी तरह लोगो को याद करेंगे 
मरने से पूर्व। 

लक्षण

बच्चे यदि बच गए हैं 
तो धन्यभाग 
बूढ़ों का त्रिकाल अंत 
होते रहना चाहिए। 
नित्य प्रातः हिले, डुले पत्ते 
बोले पखेरू 
उगे सूरज 
होता रहे अंकुरण 
बचते रहे बच्चे 
तो शताब्दियों तक जीवन सुरक्षित मानना। 
और यदि बूढ़े ही बूढ़े 
टहलते रहे सड़कों पर 
हिलाते हुए लकड़ी सिद्धांतों की 
तो जानना मेरे उत्तरवर्तियों 
अब सूर्य नहीं उगेगा 
और शताब्दियों का अंत होने वाला है। 

चेहरों का गुलाब

वह चेहरा 
एक दूसरा गुलाब न था 
वह, वह हो सकता था 
काश, उसे खिलने दिया जाता। 
मैंने माली से पूछा 
क्यों नहीं देते खिलने 
उस गुलाब को 
माली चेहरे को गुलाब नही मानता 
हंसता है, इतने गुलाब खिले हैं 
एक अनखिला रह जाये 
तो क्या फर्क पड़ता है। 

मेरी माँ

मेरी माँ बड़े सुबह जागती है 
उसको अर्से से पता है कि 
एक बार कम से कम ईश्वर का नाम लेना चाहिए ,
घर आगन बहारती है 
बहू बेटी की चिंता में दक्ष 
मेरी माँ बर्तन धोती 
खटिया बिछाती है ,
बूढी होने के एहसास से हजारो शब्द दूर 
मेरे बड़े होने की छाया से प्रसन्न 
मेरी तनख्वाह से बहुत थोड़े रुपये की 
कामना रखती है ,
यों इसी तरह जीते-जीते 
वह मेरे लिए अपनी मौत छोड़ जाना चाहती है ,
हिन्दू होने की लाज मुझे है 
वह जानती है ,
जानती है अदा करूँगा धार्मिक कृत्य 
जो उसे मुक्त कर देगी 
मेरी माँ एशिया की बूढी नदियों सी 
कामधेनु रही है। 
चाहता हूँ कुछ करना उसके लिए 
जाड़े में एक गर्म कपड़ा 
धूप में एक फोल्डिंग चारपाई 
उसे देना चाहता हूँ ,
कहाँ दे सका 
मैं ही क्यों 
मैं अपने पुरखों को जानता हूँ 
वे भी नहीं दे सके हैं अपनी माताओं को ,
यों माँ प्रसन्न है कि मैं उसका पुत्र हूँ 
मैं प्रसन्न हूँ कि वह मेरी माँ है।   

माँ और बच्चा

बच्चा माँ की गोद में 
मौज से बैठा है। 
माँ के लिए ख़ुशी है 
बच्चे का भविष्य 
और बच्चे के लिए 
माँ का वर्तमान 
दोनों की ख़ुशी में 
खुश है 
दोनों का जहान। 


यह दुपहरी

यह दुपहरी 
तुम हमारे पास आ जाओ 
तो हो जाये सुनहरी 
अन्यथा चुप है ,
तुम्हे शायद चाहती है 
पास में 
यह दुपहरी 
दिख रही है 
बाहर सड़क तक 
भागते हैं लोग जैसे 
छोड़ कर चले जाने के लिए 
जिंदगी का नरक ,
यह दुपहरी है 
मुझे आवाज देकर 
पास आई है 
और अपने साथ 
गौरैया मिहनती 
पकड़ लायी है ,
व्यस्त गौरैया
फुदकती है चटकती है 
तुम इसी बेला चले आते तो 
लग जाती कचहरी।