Sunday 2 February 2014

मेरी माँ

मेरी माँ बड़े सुबह जागती है 
उसको अर्से से पता है कि 
एक बार कम से कम ईश्वर का नाम लेना चाहिए ,
घर आगन बहारती है 
बहू बेटी की चिंता में दक्ष 
मेरी माँ बर्तन धोती 
खटिया बिछाती है ,
बूढी होने के एहसास से हजारो शब्द दूर 
मेरे बड़े होने की छाया से प्रसन्न 
मेरी तनख्वाह से बहुत थोड़े रुपये की 
कामना रखती है ,
यों इसी तरह जीते-जीते 
वह मेरे लिए अपनी मौत छोड़ जाना चाहती है ,
हिन्दू होने की लाज मुझे है 
वह जानती है ,
जानती है अदा करूँगा धार्मिक कृत्य 
जो उसे मुक्त कर देगी 
मेरी माँ एशिया की बूढी नदियों सी 
कामधेनु रही है। 
चाहता हूँ कुछ करना उसके लिए 
जाड़े में एक गर्म कपड़ा 
धूप में एक फोल्डिंग चारपाई 
उसे देना चाहता हूँ ,
कहाँ दे सका 
मैं ही क्यों 
मैं अपने पुरखों को जानता हूँ 
वे भी नहीं दे सके हैं अपनी माताओं को ,
यों माँ प्रसन्न है कि मैं उसका पुत्र हूँ 
मैं प्रसन्न हूँ कि वह मेरी माँ है।   

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