Sunday 16 February 2014

मित्र

ज्यादातर मित्र मिले 
बिछड़ गये 
वे अपने प्रभाव अंकित करते रहे 
हम कागज की तरह छपते रहे 
एक प्रेस की तरह जीवन 
हमें एक पत्र की तरह निकालता रहा 
हर एक दिन। 
लोगों ने पढ़ा हमें 
और जाना हमारे मित्रों को। 

गये हुए दिन

गये दिनों की 
स्मृतियाँ हैं 
अनेक सुन्दर साहचर्यों की 
सुगन्धित वासनाएँ !
गये दिन 
रह गये दिनों को कोसते हैं 
और देह से मन से 
आदिम वृक्ष के पत्ते 
कुछ और झर जाते हैं। 

तीन मुक्तक

१ प्रेम :
पीठ पर नागिन लिटाए ,
जा रही है दूर हम से शाम.
आँख आंचल से बंधी है ,
और अधरों पर उसी का नाम.

२ पाती :
यह उदासी जेब में थी ,
हाथ में आई.
बांचने को मन हुआ ,
पर आँख भर आई.

३ चाँदनी 
चंचल मन चांदनी हजार नहीं होती है ,
आँखों में चितवन की धार नहीं होती है.
रूप के बटोही थे, साथ चले आए थे ,
वरना अब मौसमी बहार कहां होती है !

तपश्चर्या

एक मैं ही नही 
अनादि ब्रह्म भी तप रहा है 
तुम्हारे फन में 
दोपहर की तरह 
ढलता मैं 
किवाड़ो को खोल कर 
तुम्हारे पास से आने वाले 
हवा की प्रतीक्षा में 
कब से खड़ा हूँ 
दुनिया की इस पुरानी 
हवेली में। 
कितनी बरसातों 
कितने भीतो 
वर्षो के बाद 
तुम्हारे नेत्रों में आई 
थोड़ी सी अपने लिए 
चमक देखने के लिए 
कब से ज्वार भांट की तरह 
लहर रहा हूँ-विराट सागर में 
कि तुम किसी पूर्ण मासी की रात में 
सम्पूर्ण उतरोगे 
आसक्ति के मेरे 
समूचे जल में। 


भेंट होने पर

भेंट होने पर 
फूल खिल जाते हैं 
गंध मिल जाती है,
तन प्रफुल्लित। 
न भेंट हो 
तो सब कुछ उदास-उदास 
खोया-खोया लगता है,
तुम्हारे देह में क्या 
स्त्री के अतिरिक्त कुछ है,
जो मेरे प्राणों को 
हरा रखता है 
परमात्मा सा।