गये दिनों की स्मृतियाँ हैं अनेक सुन्दर साहचर्यों की सुगन्धित वासनाएँ ! गये दिन रह गये दिनों को कोसते हैं और देह से मन से आदिम वृक्ष के पत्ते कुछ और झर जाते हैं।
१ प्रेम : पीठ पर नागिन लिटाए , जा रही है दूर हम से शाम. आँख आंचल से बंधी है , और अधरों पर उसी का नाम. २ पाती : यह उदासी जेब में थी , हाथ में आई. बांचने को मन हुआ , पर आँख भर आई. ३ चाँदनी चंचल मन चांदनी हजार नहीं होती है , आँखों में चितवन की धार नहीं होती है. रूप के बटोही थे, साथ चले आए थे , वरना अब मौसमी बहार कहां होती है !
एक मैं ही नही अनादि ब्रह्म भी तप रहा है तुम्हारे फन में दोपहर की तरह ढलता मैं किवाड़ो को खोल कर तुम्हारे पास से आने वाले हवा की प्रतीक्षा में कब से खड़ा हूँ दुनिया की इस पुरानी हवेली में। कितनी बरसातों कितने भीतो वर्षो के बाद तुम्हारे नेत्रों में आई थोड़ी सी अपने लिए चमक देखने के लिए कब से ज्वार भांट की तरह लहर रहा हूँ-विराट सागर में कि तुम किसी पूर्ण मासी की रात में सम्पूर्ण उतरोगे आसक्ति के मेरे समूचे जल में।
भेंट होने पर फूल खिल जाते हैं गंध मिल जाती है, तन प्रफुल्लित। न भेंट हो तो सब कुछ उदास-उदास खोया-खोया लगता है, तुम्हारे देह में क्या स्त्री के अतिरिक्त कुछ है, जो मेरे प्राणों को हरा रखता है परमात्मा सा।