Friday 28 February 2014

इच्छाएँ

छोटी-छोटी इच्छाएँ 
जीवन का प्रसंग 
अविरल घोरतम इच्छाएँ 
कुछ समाधान 
संतोष, नियति, ईश्वर की मरजी 
और संयोग। 
मैं पिछली कई शताब्दियों से 
बूढ़ी माँ की कहानियों 
और बड़े बुजुर्गों की हिदायतों में 
इन शब्दों को सुन रहा हूँ ,
मैं कुछ कर नहीं सकता 
इसका तात्पर्य 
मैं इसे स्वीकार करता हूँ ,
इन शब्दों पर 
किसी का राजी होना 
सत्य नहीं हो सकता 
कभी विद्रोह 
बिलकुल असफल नहीं होता। 
उठो मेरे भीतर इच्छाओं 
तुम्हारे कारण जीवित हूँ 
और लड़ो मेरी इच्छाओं 
सामने अभेद्य पर्वत हो तो भी क्या ,
कुछ तो हो कर रहेगा 
और कुछ न हुआ तो भी क्या 
तुम तो बचे रहोगे 
जीवित। 

यह दिलासा नही है

कभी भी कम नहीं होता जीवन 
वह प्रतिक्षण बढता हुआ है 
एक एक बच्चा 
हजारों बड़ो के जीवन से 
ज्यादा समुत्सुक 
प्रकृति के रहस्य को 
जानने की कोशिश में 
कितना जीता है 
पृथ्वी पर इसका कोई हिसाब नहीं 
झरने दो पत्तो को 
वसंत में सहस्र-सहस्र 
पत्ते हरे-हरे हो जायेंगे 
मुरझाने दो फूल को 
सुबह मैदानो में 
नए-नए फूल उग जायेंगे। 
जो बचे हैं 
वे ही ज्यादा हैं 
जीवन हमेशा ज्यादा ही रहता है 
बेचारी मृत्यु की तमाम 
कोशिशों के बावजूद। 

Thursday 27 February 2014

हारे हुए लोग बरक्स जीते हुए लोग

जीते हुए लोग 
ऊचे और ऊचे 
सिंहासनो पर 
बैठते गए 
पर देखो न चमत्कार 
बचे हुए लोग 
बहुसंख्यक थे। 
हारे हुए लोग 
खुश नहीं है अपनी हार पर 
पर इक्ट्ठा तो हैं 
और सिंहासनो पर बैठे लोगों की 
तरह उस तरह ईर्ष्या में भी नहीं हैं। 
ईर्ष्या और द्वेष 
मद और मत्सर 
हमेशा जीते हुए लोगों में ज्यादा होता है 
क्यों कि वे इक्ट्ठे नहीं होते 
हारे हुए लोग 
एक साथ होते हैं हर हार के बाद 
और थोड़े समय का दुख 
मनाने के बाद 
वे हमेशा आपस में डूब जाते हैं। 

स्वयं सिद्ध कुछ नहीं

स्वयं सिद्ध कुछ नहीं 
न आग 
न पानी 
न पेड़ 
न फल 
न लोटा 
न गिलास 
यहाँ तक कि जीना और मरना 
कुछ भी स्वयं सिद्ध नहीं है 
मरने के लिए भी जीना पड़ता है 
और आग को जलाना 
पानी को पीना 
फल को खाना 
लोटे को उठाना 
और गिलास को ओठों से लगाना पड़ता है ,
तुम कहते हो 
ईश्वर स्वयं सिद्ध है 
उसे भी धरती पर आना पड़ता है 
या आकाश में रहना पड़ता है 
हवाओं को प्रेरित 
सूर्य को प्रकाशित 
और पर्वतों, जंगलों और 
जाने कितने प्राणियों 
वनस्पतियों को रवाना पड़ता है ,
सब लगे रहते हैं 
जीवन का व्याकरण 
कभी स्वयं सिद्ध नहीं होता। 

आग

मैंने कहा
आग
मुझे याद नहीं
वह कब जली थी
मेरे जन्म के समय शायद ढिबरी थी,
थोड़ा बड़ा होने पर
लालटेन ,बल्ब
और मरकरी ,
आग मेरे लिए रौशनी भी थी
पर ज्यादातर मेरे लिए
रोटी थी
भात, दाल, तरकारी
वह चौके में पकाती
पवित्र अग्नि
कुछ और थी।
घोर आश्चर्य
इधर उसने अपना चरित्र बदल लिया है
वह जलती है
तो किसी न किसी की हिंसा करती है
भड़क उठती है
तो पानी से नहीं बुझती ,
आग एक दिलचस्प कविता है
थोड़ी देर के लिए
पर ज्यादातर उसमें धुआ है
कड़वाहट है ,
मैं उसे जलते भी देख चुका हूँ
बुझते भी और
कभी-कभी
दोनों ही देखना चाहता हूँ एक साथ।
मेरे पिता कहते हैं
वैश्वानर
जंगल दावाग्नि
और समुद्रों से मैंने खुद नहीं पूछा
मेरे पुरखो ने पूछा था
उन्होंने कहा था बड़वाग्नि
पृथ्वी उसे जलती और बुझती
महसूस करती है
चौके और चिता की शक्ल में
महात्मा कहते हैं वासना
और सयाने कहते हैं चिंता। 
अरे आग ,
मैं तुम्हारा कृतज्ञ हूँ 
कि तुम साक्षी हो सूर्य की तरह 
चाँद तारों की तरह 
और जानता हूँ 
कि तुम मुझे भस्म भी करोगी एक दिन 
जैसे तुमने जन्म दिया था एक दिन। 







Monday 24 February 2014

बार-बार

सत्य का गूंगापन एक बार
झूठ का धपोल शंख
बजता है बार-बार।
एक दिन कोई अच्छा सा
बुरे दिन महीनो बजो
रहते देह मन-प्राणों पर सवार।
एक जगह कहीं कोई फूल खिला
रंग और गंध से
आकर्षित करता निहाल
बाकी जगह कूड़े कतवार
करते रहते कि हम जायें
उनके पास
होता तो यही है बहुधा अनेक बार।
आदमी को औरत का इंतज़ार
औरत को मर्दों का इंतज़ार
दोनों जबतक होते हैं पास-पास
ख़त्म हो चूका होता है दोनों के
मन का इंतज़ार ,
यही हुआ है, होता रहेगा
कसकते हुए जीना
बार-बार।   

Sunday 23 February 2014

एक नाजुक सवाल


दिल का क्या हाल है मत पूछ 
हाल बेहाल है मत पूछ ,
वक्त को तोड़ रहा रोटी सा 
साथ में दाल नही मत पूछ ,
इश्क़ में क्या मिला किया उनसे 
एक नाजुक सवाल मत पूछ। 

आम आदमी के लिए गोष्ठी में

कठिन समय में 
कठिन बातों के हल में 
बड़े और वरिष्ठ लोगों की 
बात-चीत में 
कठिनतर है कुछ सामान्य आदमी के लिए पाना। 
वे लोग आम आदमी पर 
एक विचार गोष्ठी में 
सेवारत थे। 
आम आदमी अपने घर के लिए चिंतित था 
बेटे की बेरोजगारी से परेशान 
बिटिया के ब्याह की  चिंता 
और भैंस के बीमार होने की 
आसान सी दिखने वाली समस्या से 
ग्रस्त ,
कठिन लोग और कठिन समाज के 
बीच उनके लिए हल खोज जाना था ,
किसान के लिए खेती की कीमत 
मजदूर के लिए मेहनत की  कीमत 
यह उनके जिंदगी के व्याकरण से 
बाहर की चीजे निकली ,
वे उसे अंदर लाना चाहते थें 
उनके सदृश्य होने में 
कोई जरुरत नहीं थी ,
पर वे नहीं खोज सके कोई हल 
और गोष्ठी 
अचानक समाप्त हो गयी 
अगली गोष्ठी तक।  

दूध छोड़ने वाले वैष्णव जन

मिल गए अचानक 
सत्संगी 
कहने लगे 
मैंने छोड़ दिया भोजन में 
दूध का सेवन 
और दूध से बने भोजनो का स्वाद 
लहसुन प्याज तो पहले से 
छोड़ दिया था ,
वे वैष्णव थे 
वैष्णव होने का उन्हें गर्व था ,
मैंने उनसे कहा 
कब छोड़ेंगे 
इर्ष्या और द्वेष 
लोभ और हिंसा 
कब छोड़ेंगे 
दूसरे का घर देखकर 
कुढ़ना 
और कब छोड़ेंगे 
एक छोटा सा विश्वास 
जो कभी-कभी छोड़ते हैं 
अपने से गरीब आदमी को देखकर ,
वे कुछ तैश में आ गये 
मैंने उनका संग 
थोड़ी देर तक के लिए छोड़ दिया। 
हाय मैंने तो कोशिश की थी 
पर कहाँ मिल पाया 
मुझे सत्संग। 

कितना है प्यार

रात आने से पहले 
बंद करना नहीं है दरवाजे 
क्यों कि कोई आ सकता है 
उसके आने की प्रतीक्षा है। 
नींद आने के पहले 
नहीं सोना है
क्यों कि कोई आ सकता है 
पलकों में स्वप्न बनकर 
उसके आने की प्रतीक्षा है। 
भोर होने के पहले 
नहीं जागना है 
क्यों कि रात सोती है 
साथ में 
उसकी नींद में खलल होगी। 
कितनी प्रतीक्षाएँ और 
कितने हैं सरोकार 
तय करना कठिन है 
कितना है प्यार ? 

हम भरोसेमंद लोग हैं

कैसे भरोसा छोड़ दे 
जब तक जिन्दा हैं 
जिन्दा हैं क्यों कि पृथ्वी 
हमें घेरे है 
और जब भी हम 
अपने दरबे से निकलते हैं 
सूरज बिना कीमत चुकाए 
रौशनी देता है 
हवाएँ हमारे नथुनों में 
श्वास भरती हैं 
और पेड़ों की छाया में 
धूप- दिये में 
हम बैठ जाते हैं। 
नदियां जल दे देती हैं 
और समुद्र नमक 
हमारी चूल्हे की आग 
जलकर 
हमारी रोटी पका देती है 
हमारे हाथ 
हमारे निवालो को 
हमारे मुह में 
डाल देते हैं 
हम बहुत कुछ 
बिना धन के पाते हैं। 
कोई नहीं होता जब पास 
तो सड़क के कुत्ते 
जो मुहल्ले में हैं 
हमें पहचान लेते हैं 
और पास जाने पर 
वे दुम हिलाते हैं। 
हम अभी भी जिन्दा हैं 
इस शताब्दी की खौफ से बाहर 
हमें गरीब कहा जाता है 
कुछ अमीरों की तुलना में 
हमें मालूम तो ज्यादा नही है 
पर हमारे बिना उनका भी कुछ नहीं चलता 
हम उनके कपडे धोते 
बर्तन मांजते 
और उनके बच्चों की 
परवरिश के काफी हद तक 
हिस्सेदार हैं,
हमारे भरोसे पर जब इतना 
कुछ चल रहा है 
तो हम कैसे भरोसा छोड़ दें 
किसी के कहने से 
हमें कोई शिकायत है तो 
सिर्फ इतनी कि वे हमसे काम तो लें 
पर इस काम को 
पापकर्म कहना छोड़ दें। 

Wednesday 19 February 2014

शब्द छोटे हैं

शब्द छोटे हैं 
हमारे अर्थ लेकिन बड़े। 
शब्द सहारे 
भाव के इस देवता के सामने 
हाथ जोड़े खड़े। 
शब्द अपने पैतरे जब-जब बदलते 
अर्थ के आंसू उन्हें चुप करा देते हैं 
कुछ नहीं होता 
किसी के शब्द से 
अर्थ से होता सभी कुछ 
शब्द है निः सीम 
लेकिन अर्थ इस निः सीमता को 
आर्द्र करते हैं 
अमृत का कलश रचते हैं। 


प्यार करने के लिए

प्यार करने के लिए कुछ चाहिए 
प्यार तो कम से होना नही चाहिए 
प्यार करने के लिए कुछ चाहिए 
एक कोई और होना चाहिए। 
शब्द में तब अर्थ आता है 
जब कभी एकांत मिटता है 
और अच्छा अर्थ पाने के लिए 
तीसरा भी चाहिए, सम्पूर्ण दुनिया चाहिए। 

अमोघ प्रश्न

पीछा नहीं छोड़ती इच्छाएँ 
चाहे हम मर जायें 
इसीलिए शायद 
हम जनमते हैं बार-बार। 
शाम होने पर 
घने वृक्षों के साथ 
जब रात की पत्तियां 
हिलती हैं 
तो पूछता हूँ 
पेड़ों की जड़ों के पास जाकर 
तुम्हे क्या सताती थी
 इच्छाएँ 
पूर्व जन्म में 
क्या कोई जड़ इच्छा थी तुम्हारी 
कि तुम जड़ हो गए। 
पेड़ बोलते नहीं 
लौट आता हूँ 
अपनी माँद में 
सुबह उठकर 
टहलने जब निकलता हूँ 
एक-एक चिड़िया से 
एक-एक पेड़ से 
एक-एक कुत्ते से 
एक-एक आदमी से 
गोया कि 
दिख गए हर जीव से जंतु से
एक ही प्रश्न करता हूँ 
और कबतक तुम 
जनमते मरते रहोगे 
इसी तरह 
पीढ़ी दर पीढ़ी 
प्रश्न जितना अमोघ होता है 
उत्तर उतना कहाँ होता है अमोघ। 

नए सिरे से

नए सिरे से 
नयी बातें 
उठाओ 
जैसे गिर गए 
झोपड़े के बांस, बल्ली और छाजन को 
जमाने के लिए 
आदमी बुलाने पड़ते हैं 
वैसे अपनी इच्छाशक्ति को जगाओ 
हारे तो क्या हुआ 
जितने के लिए 
फिर से कमर बाँधो 
छाती मजबूत करो 
और निकलो एकांत के दलदल से। 
हे भाई अनंत मिश्र 
इतनी जल्दी 
कैसे हो गए उदास 
और धप से बैठ गए ,
जितनी दूर चल चुके हो 
पथ को प्रणाम करो 
और यात्रा पर निकलो। 
फिर कल होगा 
और सूर्य निकलेगा 
मनसा की नदी बहेगी 
उसमे नहाओ 
और अपने काम पर जाओ।  

तीनों पीढियो में

बाबा की गोदी में 
बैठकर बाजार घूमने निकला 
पोता, बाबा से पूछता है -
बाबा गइया सड़क पर क्यों बैठी है ?
कुत्ता नाली के पास क्यों सो रहा है ?
गइया का घर नहीं है क्या ?
कुत्ते का कोई कमरा नहीं है क्या ?
अब बाबा क्या बतायें 
कि बहुत से आदमियों के पास भी घर नहीं है 
बहुत से आदमियों के पास भी कमरा नहीं है। 
वे इसी तरह पड़े रहते हैं 
यहाँ-वहाँ 
बैठे रहते हैं 
रात को सो जाते हैं 
सड़क पर बीनते हैं जिंदगी 
और बीनते-बीनते एक दिन 
मर जाते हैं। 

Tuesday 18 February 2014

हिंसा


जब भी इच्छाएं पूरी होती हैं 
कोई न कोई मरता है 
हिंसा होती है। 
एक चावल का दाना ही सही 
पक जाता है 
एक हरी-भरी डाल पर 
ऐठी भिन्डी 
काट दी जाती है 
और तो और 
भारी सुरक्षा के बीच 
लिपटी बेचारी प्याज 
सलाद में बदल दी जाती है ,
किसी मुर्गे के पंख नुचते हैं 
किसी बकरे का कलेजा तल दिया जाता है 
किसी भी फूल को चढ़ जाना पड़ता है 
पत्थर पर 
शंख पर 
गुथ जाना पड़ता है 
डोरे में 
जब भी किसी की इच्छा पूरी होती है 
हिंसा हो जाती है। 
मच्छरों के विरुद्ध 
चूहों के खिलाफ 
और यहाँ तक कि 
गायो, भैसो, और भेड़ों के विरुद्ध भी 
जो देते हैं स्तन्य 
या कि अपने कीमती बाल 
आदमी रोज-रोज 
हत्या करता हैं उन्हें। 
कुत्तों को सड़क पर रौद जाते हैं 
भारी वाहन 
कोई शोक सभा 
आयोजित नही होती 
कितने ही पशु 
प्राण देते हैं 
आदमी के शौक की बलिवेदी पर 
कहीं कोई शहीद स्मारक नहीं बनता। 
काट दिये जाते हैं 
भाग न पाने में मजबूर पेड़ 
और कोई संविधान 
दंड नहीं देता हत्यारों को 
ईश्वर और मनुष्य के बीच 
ऐसी है सांठ-गाँठ 
पत्ता भी नहीं हिलता 
और चलती रहती है 
व्यवस्था। 
कवियों का काव्य 
बहुत सिमित है 
भाषा का साम्राज्यवाद 
अभी भी चल रहा है। 
किस्सा कोताह 
हिंसा होती रहेगी 
दुनिया में 
जब तक हैं इच्छाएं 
आदमी की 
पशुओं की हिंसा तो 
भूख तक सिमित है 
आदमी की हिंसा 
अनंत आकाश की तरह है।

Monday 17 February 2014

नयन

टंगे हैं नयन दो 
तुम्हारे इन प्राणों में 
याद की यह सूरत 
तस्वीर सी टंगी है। 

नये वर्ष की शुभकामना

करुणा की कोख से जनमे 
नये इसवी वर्ष 
दुनिया के लिए लाना 
अपने पिता के थोड़े से गुण 
मन की विनम्र ममता 
प्राणियों के लिए 
संगीतमय सुबह 
और उदासी सहने की शक्ति-
हर शाम। 
थोड़ी रोशनी 
थोडा खुलापन 
थोडा प्यार 
थोड़ी महक 
तुम्हारे पास बहुत कुछ है 
पर थोड़े से लोगों के लिए ही नहीं 
सब के लिए लाना 
कुछ न कुछ 
हो सके तो बहुत कुछ 
सर्वे भवन्तु सुखिनः 
सम्पूर्ण शुभकामना। 

रोशनी

रोशनी उतनी नहीं कि 
अंधों को दिखे 
अँधेरा उतना नहीं कि 
आँखों को अंधा कर दे। 

घृणा

प्यार की दुश्वारी अब बहुत 
झेल ली 
आओ अब घृणा करें ,
घृणा करे ऐसे सब लोगों से 
जो केवल अपने को 
करते हैं प्यार। 
घृणा एक शाश्वत 
हथियार है 
लड़ने का 
घृणा एक ऊँची मशाल है 
राह देखने की। 

सावन की हरियाली

अच्छा-अच्छा खा लिया 
अच्छा-अच्छा पहन लिया 
बचा-खुचा 
फटा-चिटा छोड़ दिया 
बचे हुए लोगों के लिए 
अच्छे थे लोग। 
बचे हुए लोगों ने 
लूट-पाट कर के 
छीन-झपट करके 
पा लिया, खा लिया 
फिर भी कुछ 
बचे हुए लोग 
बचे रह गए 
आशा है 
आगे भी बचे रहेंगे। 
मानवता पावन है 
सदियों से चल रही 
महिमामय जीवन में 
हरियाली सावन है। 

मेरे बच्चों

सुन्दर औरतें
अपनी सुन्दरताएं बेच रही हैं
और अच्छे गवैये अपना गला।
पहलवान अपने चट्ठे पर
उठा रहे हैं पहाड़
और पेट से निकले बच्चे
पीठ पर लादे हैं
शताब्दियों का कूड़ा यानी बस्ता।
दलाल
अपनी रोटी में नहीं
दलाली में स्वाद पा रहा है
और बदमाश
बस्ती में खैर के खिलाफ खड्गहस्त हैं
एक ठीकरा
खरबों की जिंदगी का गीत
दुनिया के टेपरिकॉर्डर पर
नही चढ़ता है ,
कभी रील ही उतार देता है ,
नदियों में चैन नहीं
पहाड़ों में मौन नहीं
वृक्ष फल बेचतें हैं
और पक्षी
मुनीमों की तरह रखते हैं हिसाब-किताब ,
मेरे समय का सूर्य
ए. सी. के बिना नहीं उगता ,
और रात रानी
महक देने के पूर्व
मुस्कान के सौदे करती है ,
मैं कहाँ हूँ
किस तबेले में ,
मेरे बच्चों तुम्हे यह दुनिया
सौपकर जाने के पूर्व
असलियत बयान कर रहा हूँ ,
किसी गलतफहमी में मत रहना ,
मैं तुम्हे वसीयत में जो
देने जा रहा हूँ
वह एक नर्क है
इसे अपना घर समझना। 

सत्य है शरीर

सत्य है शरीर 
न कपड़ा न लत्ता 
न बम्बई न कलकत्ता 
न न्यूयार्क
न वाशिंगटन 
न हवा सा मन 
न मोटर सा पर्यटन। 
सत्य है हाथ पाँव 
आँख, कान, नाक
चेहरा और दिल 
न विमान न टीवी 
न कम्प्यूटर 
न फूल, न गंध 
सत्य है जड़ 
बाद में बनता है तना 
यह समझ में तुम्हे आये 
तो समझो आदमी बना। 
  

सौदागर

उन्होंने अपना सामान अपने से 
झोले से निकाला 
और लोगों को दिखाना शुरू किया ,
यह रहा साबुन 
इससे नहायें ,
यह रहा भोजन 
इसे आप खायें ,
यह रहा घर 
ऐसा बनाये ,
ये रही मोटर 
इसमें आये जाये ,
जनता ने पूछा 
कब हम इसे पाये ?
उन्हों ने कहा 
बस आप लोग 
कीमत चुकायें। 

Sunday 16 February 2014

मित्र

ज्यादातर मित्र मिले 
बिछड़ गये 
वे अपने प्रभाव अंकित करते रहे 
हम कागज की तरह छपते रहे 
एक प्रेस की तरह जीवन 
हमें एक पत्र की तरह निकालता रहा 
हर एक दिन। 
लोगों ने पढ़ा हमें 
और जाना हमारे मित्रों को। 

गये हुए दिन

गये दिनों की 
स्मृतियाँ हैं 
अनेक सुन्दर साहचर्यों की 
सुगन्धित वासनाएँ !
गये दिन 
रह गये दिनों को कोसते हैं 
और देह से मन से 
आदिम वृक्ष के पत्ते 
कुछ और झर जाते हैं। 

तीन मुक्तक

१ प्रेम :
पीठ पर नागिन लिटाए ,
जा रही है दूर हम से शाम.
आँख आंचल से बंधी है ,
और अधरों पर उसी का नाम.

२ पाती :
यह उदासी जेब में थी ,
हाथ में आई.
बांचने को मन हुआ ,
पर आँख भर आई.

३ चाँदनी 
चंचल मन चांदनी हजार नहीं होती है ,
आँखों में चितवन की धार नहीं होती है.
रूप के बटोही थे, साथ चले आए थे ,
वरना अब मौसमी बहार कहां होती है !

तपश्चर्या

एक मैं ही नही 
अनादि ब्रह्म भी तप रहा है 
तुम्हारे फन में 
दोपहर की तरह 
ढलता मैं 
किवाड़ो को खोल कर 
तुम्हारे पास से आने वाले 
हवा की प्रतीक्षा में 
कब से खड़ा हूँ 
दुनिया की इस पुरानी 
हवेली में। 
कितनी बरसातों 
कितने भीतो 
वर्षो के बाद 
तुम्हारे नेत्रों में आई 
थोड़ी सी अपने लिए 
चमक देखने के लिए 
कब से ज्वार भांट की तरह 
लहर रहा हूँ-विराट सागर में 
कि तुम किसी पूर्ण मासी की रात में 
सम्पूर्ण उतरोगे 
आसक्ति के मेरे 
समूचे जल में। 


भेंट होने पर

भेंट होने पर 
फूल खिल जाते हैं 
गंध मिल जाती है,
तन प्रफुल्लित। 
न भेंट हो 
तो सब कुछ उदास-उदास 
खोया-खोया लगता है,
तुम्हारे देह में क्या 
स्त्री के अतिरिक्त कुछ है,
जो मेरे प्राणों को 
हरा रखता है 
परमात्मा सा। 

Monday 3 February 2014

बाहर निकलो

बाहर निकलो मेरे दोस्त 
समय धूप हवा पानी सा 
शहरो व गॉँवो के पेट में 
समाया है ,
भूख प्यास तृष्णा या कामना 
कितने ही रूपों में 
यहाँ वहाँ मैंने उसे 
मुँह बाये खड़ा पाया है। 
क्या करोगे तुम 
डँसने को प्रयत्न्शील नाग का 
क्या करोगे इस 
लगी हुई चौतरफा आग का ?

स्त्री

हजार आँखों वाली होती है स्त्री 
एक भेंट में 
तुम देख सकते हो 
उसकी दो आँखें 
दूसरी और तीसरी 
चौथी और पांचवी 
मुलाकातें 
यदि तुम्हारी होती गयी 
और यदि तुमने देखना जारी रखा 
तो हजार आँखे 
तुम्हे दिख जायेंगी 
किसी भी स्त्री की।  
पुरुषोत्तम  
सहस्त्रवाहु हो सकते हैं 
पर स्त्री हमेशा 
हजार आँखो वाली है 
इंद्राणी। 

देखिये

देखिये यह रात 
कैसे बीतती है 
दिन बिताना नही पड़ता 
रात के संग 
बात वैसी नही होती। 
देखिये यह लाश है 
इसे ढोना बहुत मुश्किल है 
जिंदगी के संग 
वैसी बात प्रायः नही होती। 
देखिये 
यह बात 
दर्शन की नहीं 
रोटी-नमक की है 
गजल, गीतो की नहीं 
इसको न ले और बातों की तरह 
और बातों की तरह 
यह बात शायद नही। 

अव्याकरण

न कोई इच्छा है 
न आकांक्षा 
न प्रेम 
न प्रतीक्षा 
पर अपरचित सा तुम्हारा 
मौन रहना 
सालता है। 
तुम हजारो मील मुझसे दूर रहकर क्या करोगी 
एक क्षण भी मिलोगी तो 
निपट मेरा कहीं होना 
गहन तुमको कहीं बिठा देगा 
मुझे तुमसे कुछ नहीं कहना 
सिवा इसके 
तुम मुझे भी देखकर 
सामान्य रहना सीख लो 
हमारे लिए इतना 
और कर दो 
जिस तरह तुम रह लिया करती हो खुश-खुश 
नहीं मिलने पर 
उस तरह 
तुम देख कर भी खुश रहा करो। 

मेरे भीतर

मेरे भीतर सागर गाता है 
हाहाकार नहीं है यह 
आत्मा का शोर उठा करता है 
शत-शत तरंग 
शत-शत घूर्णन 
सूरज को 
चन्द्रमा को 
पास बुलाता है। 
भीतर सब इन्द्रियाँ 
मछलियों सी दौड़ लगाये हैं 
जाने कितने रत्न छिपे हैं 
जाने कितने अभूतघर 
कितने विष के स्रोत 
मेरे भीतर सभी देवता 
सभी राक्षस 
मिलकर मंथन करते रहते हैं
विष्णु बांटते हैं अमृत 
शंकर विष पी जाता है। 

चेहरा चेहरा खिल जाय

चेहरा चेहरा फूल खिले 
तो मन को शान्ति मिले। 

मलिन उदासी हर जाय 
तो मन को शांति मिले। 

भूखे को भोजन मिल जाय 
रोगी को उपचार 
किसी दिगंबर का कपड़ा सिल जाय 
तो शान्ति मिले। 

दुखी दीन के घर में भी 
यदि महक उठे भोजन की 
पल्लिक प्रेसों पर भी 
यदि सुविधा सम्मान मिले। 

देहाती से भी कोई यदि 
ठाट-बाट का दे दे न्योता 
मधुर भाव से बाते करे 
तो मन को शान्ति मिले 

हवा, दूध, पानी, पथ 
प्राणी-प्राणी प्राप्त करे 
खाना का सामान सभी को 
श्रम से सुलभ रहे 
ऊँच-नीच का भेद मिटे 
तो मन को शान्ति मिले 

जागरण : निः शब्द

जागे कौतूहल 
छल-छल-छल भर आये 
नेत्रों में जल। 
रूप प्यासे 
हो रुआँसे 
कहाँ संध्या हम बिता आये 
चुप हुए हम खोजते अपनी जगह 
वृक्ष सोये से लगे 
धरा फैली बहुत व्यापक 
दिष्टि ओछी 
कहाँ से समाये नम 
खोलता हूँ पृष्ठ मैं 
मन की किताबों का 
बंद करता हूँ 
नहीं कोई शक 
हिलता सास लेता। 
यह जागरण निः शब्द 

Sunday 2 February 2014

रह गए अन्तः करण में

मैंने मोगरे का फूल नहीं देखा 
उसे मैंने ओठों की तरह 
प्रेम की किताबों में देखा है 
मैंने गुलाब के फूल देखे हैं 
तुम्हारे ओठों की तरह 
मुस्कुराते हुए फिर 
आखों से झरते हुए 
पढ़े हुए 
देखे हुए 
दोनों ही फूल थे 
देखे गए 
पढ़े गए 
झर गए 
रह गए तो केवल तुम्हारे ऒठ 
अन्तः करण में 
प्रतीक्षित चुम्बन की तरह। 

चिंता मुझे उनकी है

अपनी ही बनायी दुनिया 
घेरती है चारो ओर से 
लगाती है कांटे नागफनी 
ऊँची चहारदीवारी 
जड़ती  है सीसे 
गेट बनाकर 
हथियार बंद संतरी बैठा देती है। 
भागोगे तो कैसे तुम 
अपाहिज पहले कर रखा है उसने 
टुकुर-टुकुर देखो 
घेरे में बैठकर आकाश 
घेरे के अंदर 
लगे पेड़ पौधे 
फूल पत्ते
रंग बदरंग होते इट पत्थर। 
मेरा तो जीवन पहले से ही आकाश था 
भविष्य में भी आकाश रहेगा 
चिंता उनकी है 
जो उगा रहे हैं नागफनी 
घेरे लगा रहे हैं यथाशक्ति 
सबको 
अपना समय इसी बंधन को 
किये जा रहे हैं समर्पित।   

यह भी एक बसंत है

यह भी एक बसंत है 
कि द्वार-द्वार पर 
लटक रहे हैं ताले 
शहर कहीं और घूमने चला गया है 
लौटकर पूछता हूँ 
शहर, घर और मित्रों का पता 
कोई ठिकाना बताता नहीं 
एक कुत्ता राह में पड़ा है ,
एक औरत कूड़ा फेंक कर जा रही है 
लोग है भी और नहीं भी 
यह कैसा बसंत है 
कि बतास गायब है 
पर है यह बसंत ही 
कि उसके लक्षण खोज रहा हूँ मैं। 

प्रेम कहानी

जो रह नहीं गयी 
वह उपेक्षा थी 
आँख खोलने वाली 
यद्यपि उसे कानों ने सुना था 
जैसे आकाश सुनता है समुद्र को 
और कुछ और दूर हो जाता है 
मैंने सुना था 
मैं आकाश की तरह दूर हो गया 
जैसे हर कहानी का अंत होता है 
उसी तरह मेरी कहानी का अंत हुआ 
अब यह कहने की जरुरत नहीं 
कि यह भी एक प्रेम कहानी थी। 

किसान

किसान ने बादल की तरफ देखा 
वे चले गये थे 
किसान ने धरती की ओर देखा 
वह सूख रही थी 
बेटे की ओर देखा 
वह बे रोजगार था 
पत्नी की ओर देखा 
उसकी साड़ी फटी हुई थी 
जेब की ओर हाथ बढ़ाया 
उसमे दो रुपये थे 
घर में देखा 
बर्तन, कुछ अनाज 
कुछ कंडे, उपले लकड़ियों का ढेर। 
किसान ने सोचा 
नमक है
तो भोजन का उपाय है 
और ,और , और 
और तो कुछ भी नही है 
किसान के पास 
क्या किसान को किसी 
और देश में होना चाहिए।  

कथरी

वह चौराहे पर मिल गया 
हड़बड़ी में था 
उसके थैले में क्या था 
मैंने पूछा नही ,
उसने कहा 
दोस्त, बहुत मुश्किल में हूँ 
दाल अट्ठारह रुपये 
तेल छत्तीस रुपये 
आटा तीन रुपये 
तनख्वाह बारह सौ रुपये 
मकान भाड़ा चार सौ 
कैसे चलेगा ?
मैंने कहा मैं भी मुश्किल में हूँ 
तनख्वाह छः हजार रुपये 
इनकम टैक्स एक हजार रुपये 
बिमा, पी.एफ. कटौतियां 
हाथ में आता तीन हजार रुपये 
मकान भाड़ा एक हजार रुपये 
बचता दो हजार रुपये 
जीने का खर्च बढ़ा 
रुपये का मूल्य घटा ,
दोनों की कथरी खुली 
दोनों ने एक दूसरे के सामने 
अपना-अपना कम्बल झाड़ दिया,
हमने साथ-साथ चाय पिये 
पान खाये 
अलग-अलग दिशाओ में चले गये ,
क्या हम लोग कथरी सीते रहेंगे 
कौन है वो जो कालीन बिछाते हैं 
वे कौन सा धंधा अपनाते हैं। 

शशि प्रभा

तुम देर से आयी दुनिया में 
देर से मिली 
देर से खिली 
नहीं तो मैं तुम्हे प्यार करता 
तुम्हारी खनकदार हंसी को 
तुमसे रोज थोड़ा-थोड़ा मांग लेता 
बंद करता जाता 
दिल की तिजोरी में 
कि वे प्यार के खजाने बनते जाते
जिंदगी के तालाब में 
मछली की तरह 
तुम होती 
जल होता 
लहर होती 
कलकल होता। 
तुमने देर कर दी शशि प्रभा 
देर कर दी। 

तुम चुप थी

तुम चुप थी 
तुम्हारे सवाल में 
पर चुप्पी न थी 
वह एक और सवाल के लिए 
सवाल था ,
मैं उसका जवाब था 
मैं चुप था 
कि तुम सवाल के लिए 
कोई सवाल न करो ,
तुम चुप थी 
कि मैं कोई जवाब न 
बनूँ। 

वह स्त्री

वह स्त्री 
अपने पति के लिए 
प्यार नहीं देह सजाती है 
अच्छा है उसका प्यार 
पति परमेश्वर की इच्छानुसार 
वह सजती है सवरती है। 
वह स्त्री 
प्यार की प्रतीक्षा करती-करती 
बूढ़ी -बूढ़ी  होती जाती है 
उसका पति 
उसकी इच्छा की 
परीक्षा लेना चाहता है 
शायद ?

गरीब आदमी की चिंता

सुबह-सुबह 
चाय की चिंता 
घर में कुहराम की चिंता 
आ गए हित-नात की चिंता 
बढ़ रहे कर्ज की चिंता
बेटे की रोजगार की चिंता 
बेटी के ब्याह की चिंता 
गिर रही दीवार की चिंता 
पेड़ नहीं छतनार की चिंता
छोटी-छोटी इच्छाएँ 
छोटी-छोटी बातें 
प्यार भी दाल-रोटी की तरह 
उसे भी बनाये रहने की चिंता। 
बड़े लोग मिल गए 
तो हसने की विवशता 
अपने से भी गरीबों को देखकर 
कुछ ज्यादा घबड़ाये रहने की चिंता 
देश की खबर में अपनी खबर 
कभी न मिलने की चिंता। 

सपना सच मानती है औरत

वह औरत सपने में रहती है 
कभी भी कर लेती है 
आँखे बंद ,
सपने में यार से मिलती है 
बिछुड़ती है। 
सपने के बाहर एक भीतरी दुनिया है 
उसके यार भी हैं 
रिश्तेदार भी 
वह उनसे न मिलती है 
न बातें करती है। 


अहैतुक

दिए बिना रहा नही जाता 
सम्पूर्ण दिए बिना !
क्यों कि कुछ ही शेष रह जाय 
तो देना रस नही बनता 
कोई समूर्ण नही घटता !
जैसे बीज बिना मिटे नही बनता वृक्ष 
और वृक्ष बिना माहलाहित हुए 
नही बनता प्रसून !
वे स्वीकारे न स्वीकारे !
जो जानते हैं रहस्य जीवन का 
वे मिटेंगे सम्पूर्ण 
वृक्ष बनेंगे 
रंग विरंगे फूलों से सिलेंगे 
सृष्टि के नयनों की आगवानी 
हमेशा-हमेशा करेगें। 

प्रिय जन जब बिछुड़ते हैं

प्रिय जन जब बिछुड़ते हैं 
जीवन के घर बाहर छोड़ जाते हैं 
अपने अस्तित्व के टुकड़े 
कभी आधा चेहरा 
कभी कोई आधा अधूरा शरीर 
राह में 
घर में 
दूकान में 
कभी उनकी हँसी 
कभी बालो की सेटिंग 
कभी कोई तकिया कलाम ,
गैर सिलसिलेवार उनकी 
स्मृति के खंड-खंड 
चुप उदास करते जीवन की 
छाया में घुल-मिल जाते हैं ,
मृत्यु को प्राप्त 
आत्मीय मनुष्य 
कितने वजनी हो जाते हैं 
सोच कर डर भी लगता है ,पर साथ-साथ 
होती है आत्मा के किसी कोने में 
एक शाश्वत ख़ुशी कि 
हमारे बाद भी लोग जियेंगे 
और इसी तरह लोगो को याद करेंगे 
मरने से पूर्व। 

लक्षण

बच्चे यदि बच गए हैं 
तो धन्यभाग 
बूढ़ों का त्रिकाल अंत 
होते रहना चाहिए। 
नित्य प्रातः हिले, डुले पत्ते 
बोले पखेरू 
उगे सूरज 
होता रहे अंकुरण 
बचते रहे बच्चे 
तो शताब्दियों तक जीवन सुरक्षित मानना। 
और यदि बूढ़े ही बूढ़े 
टहलते रहे सड़कों पर 
हिलाते हुए लकड़ी सिद्धांतों की 
तो जानना मेरे उत्तरवर्तियों 
अब सूर्य नहीं उगेगा 
और शताब्दियों का अंत होने वाला है। 

चेहरों का गुलाब

वह चेहरा 
एक दूसरा गुलाब न था 
वह, वह हो सकता था 
काश, उसे खिलने दिया जाता। 
मैंने माली से पूछा 
क्यों नहीं देते खिलने 
उस गुलाब को 
माली चेहरे को गुलाब नही मानता 
हंसता है, इतने गुलाब खिले हैं 
एक अनखिला रह जाये 
तो क्या फर्क पड़ता है। 

मेरी माँ

मेरी माँ बड़े सुबह जागती है 
उसको अर्से से पता है कि 
एक बार कम से कम ईश्वर का नाम लेना चाहिए ,
घर आगन बहारती है 
बहू बेटी की चिंता में दक्ष 
मेरी माँ बर्तन धोती 
खटिया बिछाती है ,
बूढी होने के एहसास से हजारो शब्द दूर 
मेरे बड़े होने की छाया से प्रसन्न 
मेरी तनख्वाह से बहुत थोड़े रुपये की 
कामना रखती है ,
यों इसी तरह जीते-जीते 
वह मेरे लिए अपनी मौत छोड़ जाना चाहती है ,
हिन्दू होने की लाज मुझे है 
वह जानती है ,
जानती है अदा करूँगा धार्मिक कृत्य 
जो उसे मुक्त कर देगी 
मेरी माँ एशिया की बूढी नदियों सी 
कामधेनु रही है। 
चाहता हूँ कुछ करना उसके लिए 
जाड़े में एक गर्म कपड़ा 
धूप में एक फोल्डिंग चारपाई 
उसे देना चाहता हूँ ,
कहाँ दे सका 
मैं ही क्यों 
मैं अपने पुरखों को जानता हूँ 
वे भी नहीं दे सके हैं अपनी माताओं को ,
यों माँ प्रसन्न है कि मैं उसका पुत्र हूँ 
मैं प्रसन्न हूँ कि वह मेरी माँ है।   

माँ और बच्चा

बच्चा माँ की गोद में 
मौज से बैठा है। 
माँ के लिए ख़ुशी है 
बच्चे का भविष्य 
और बच्चे के लिए 
माँ का वर्तमान 
दोनों की ख़ुशी में 
खुश है 
दोनों का जहान। 


यह दुपहरी

यह दुपहरी 
तुम हमारे पास आ जाओ 
तो हो जाये सुनहरी 
अन्यथा चुप है ,
तुम्हे शायद चाहती है 
पास में 
यह दुपहरी 
दिख रही है 
बाहर सड़क तक 
भागते हैं लोग जैसे 
छोड़ कर चले जाने के लिए 
जिंदगी का नरक ,
यह दुपहरी है 
मुझे आवाज देकर 
पास आई है 
और अपने साथ 
गौरैया मिहनती 
पकड़ लायी है ,
व्यस्त गौरैया
फुदकती है चटकती है 
तुम इसी बेला चले आते तो 
लग जाती कचहरी।