Sunday 23 February 2014

हम भरोसेमंद लोग हैं

कैसे भरोसा छोड़ दे 
जब तक जिन्दा हैं 
जिन्दा हैं क्यों कि पृथ्वी 
हमें घेरे है 
और जब भी हम 
अपने दरबे से निकलते हैं 
सूरज बिना कीमत चुकाए 
रौशनी देता है 
हवाएँ हमारे नथुनों में 
श्वास भरती हैं 
और पेड़ों की छाया में 
धूप- दिये में 
हम बैठ जाते हैं। 
नदियां जल दे देती हैं 
और समुद्र नमक 
हमारी चूल्हे की आग 
जलकर 
हमारी रोटी पका देती है 
हमारे हाथ 
हमारे निवालो को 
हमारे मुह में 
डाल देते हैं 
हम बहुत कुछ 
बिना धन के पाते हैं। 
कोई नहीं होता जब पास 
तो सड़क के कुत्ते 
जो मुहल्ले में हैं 
हमें पहचान लेते हैं 
और पास जाने पर 
वे दुम हिलाते हैं। 
हम अभी भी जिन्दा हैं 
इस शताब्दी की खौफ से बाहर 
हमें गरीब कहा जाता है 
कुछ अमीरों की तुलना में 
हमें मालूम तो ज्यादा नही है 
पर हमारे बिना उनका भी कुछ नहीं चलता 
हम उनके कपडे धोते 
बर्तन मांजते 
और उनके बच्चों की 
परवरिश के काफी हद तक 
हिस्सेदार हैं,
हमारे भरोसे पर जब इतना 
कुछ चल रहा है 
तो हम कैसे भरोसा छोड़ दें 
किसी के कहने से 
हमें कोई शिकायत है तो 
सिर्फ इतनी कि वे हमसे काम तो लें 
पर इस काम को 
पापकर्म कहना छोड़ दें। 

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