Saturday 22 March 2014

हमारे समय में ;


हमारे समय में
क्रांति भी एक फैशन है
सत्य, अहिंसा, करुणा
और दलितोद्धार
स्त्रीविमर्श
और गाँव के प्रति
जिम्मेदारी |
हमारे समय में
भक्ति भी एक फैशन है
सत्संग,
ईश्वर
और सहविचार |
प्रेम और मोह
सभी फैशन की तरह
यहाँ तक कि गांधीवाद

यथार्थवाद 
अंतिम व्यक्ति की चिंता
और लाचारी |
हमारा समय
कुछ मुहावरों में
जिन्दा है
सबको प्रोडक्ट की तरह
बेच रहा है
हर तरह के शुभ के लिए
एक दिन है
मदर डे
फादर डे
प्रेम दिवस
हिंदी दिवस
और जाने कितने ‘डे’
और जाने कितने दिवस |
शान्ति
सद्भावना
और मैत्री
सब मुहावरों में
तब्दील हो गए हैं |
सब कुछ छपे हुए
जीवन की तरह है |
आदमी कुछ शब्दों में
शब्द कुछ अंकों में
अंक कुछ
वेबसाइट में  
सूचनाओं में बदल गए हैं |
हमारे समय का आदमी
आदमी नहीं है
वह केवल संसाधन है
किसके लिए
हमारा समय
इसे जानता है
हम जो आदमी हैं
वे ही नहीं जानते |
हम अपने समय में हैं
यह एक अनुभव नहीं
एक खबर है
जो छप जाता है
और हम जान जाते हैं कि
हम हैं |
हम अपने समय की कोई
व्याख्या नहीं कर सकते |
सिर्फ उसमें हो सकते हैं
हमारी छोटी-बड़ी
एक कीमत है
जिसे देकर कोई भी
हमें खरीद सकता है |
हम अपने समय के ब्रम्हांड में
एक कोड हैं
एक बटन हैं
जिसपर उगली पड़ते ही
हम जीने लगते हैं
और खेलने लगते हैं
और एक बटन से
हमारा जीवन बंद हो जाता है |

Wednesday 19 March 2014

होली बीत गई

जैसे सब बीतता है 
वैसे बीत गई 
एक शब्द उठा 
रंगीन फ़व्वारो पर 
रखे बैलून की तरह 
रात आते-आते 
मशीन बंद हो गई
न रंग है, न फव्वारा 
न वह बैलून 
होली मिठाइयाँ और गुजियों के 
पच गए अवसाद के स्वाद की तरह 
खत्म हो गई। 
मिल आए लोग जिनसे मिलना था 
मिल लिए लोग जो मिलने आए थे। 
समय के माथे पर 
लगा अबीर झर गया 
होली बीत गयी। 
एस एम एस पद लिखे गए 
हार्दिक शुभकामनाएँ बाजी हो गई 
उन्हें लोगो ने अपने मोबाइल से 
डिलीट कर दिया 
अब अगले साल आएगी होली 
एहसास, सुदूर समन्दर में 
चला गया.… लगा 
चुप है शहर 
उजाड़ लग रहा है गाँव 
कल अखबार भी नहीं आयेगा 
कि तुरंत याद दिला दे होली का 
अगले दिन आयेगा 
तब तक दिलचस्पी कम हो जायेगी। 
बच्चे और जवान 
दिन भर होली खेलकर 
गाकर, बजाकर, नाचकर 
बेहद थककर 
सो गये 
होली बीत गई 
होली की तरह 
जिंदगी बीत जायेगी 
एक दिन 
न मन का फव्वारा रहेगा 
न तन का बैलून 
मशीन बंद हो जायेगी 
पानी ख़त्म हो जायेगा। 
बचे हुए लोग 
बचे रह जायेंगे 
और कुछ लोग 
होली की तरह बीत जायेंगे 
चुप एक शब्द है 
हर त्योहार में 
जो उनके अवसान के 
समय आता है 
और कहता है 
मुझे देखो और पहचानो
और बीत जाने की प्रतीक्षा करो।   

Sunday 9 March 2014

आदमी और बाकी सब

झुकी हुई औरत 
गर्दन पर बाल खोलती है 
दिख गए मर्द को देखती है 
और अंदर भाग जाती है,
औरत जब मर्द देखती है 
तो अंग छुपाती है 
मर्द जब औरत को देखता है 
तो सीना फुलाता है,
चिड़िया जब चिड़िया को देखती है 
चहचहाती है,
मैंने पेड़ से पूछा 
आप क्या करते हैं श्रीमान 
आदमी को देख कर ?
मैं देखता हूँ 
कुल्हाड़ी नहीं है न उसके पास 
और आस्वस्थ हो जाता हूँ। 


Thursday 6 March 2014

विपत्तियों में

ढकेले रहेंगे हम विपत्तियों को 
जैसे कूड़े को अपने द्वार से बाहर कर 
कही दूर कर आते हैं झाड़ू से हम 
पर फिर वे आ जाते हैं जैसे 
वैसे आफते आही जाती हैं 
घर में,  दरवाजे पर 
दिल में और देह में। 
आदमी -आदमी के काम आता है 
इसीलिए कि हर आदमी के 
घर और बाहर विपत्तियाँ आती हैं 
सब अपनी-अपनी विपत्ति में पड़े लोग 
दूसरों की विपत्ति में 
ढाढस ऐसे बांधते हैं 
जैसे उन्हें ढाढस बध गयी हो 
मुकम्मल। 
हम जानते हैं सब 
पर जानना कितने काम का होता है 
ऐसे अवसर पर। 
हमें न जानने जैसा 
होना और बरतना 
कितना सहारा देता है 
विपत्तियों में। 

बच्चे

बच्चे आते हैं पास 
और ऐसा कोई प्रश्न करते हैं 
जो उत्तर के रूप में 
केवल बच्चे को और अधिक 
बिम्ब में बदल देते हैं 
बच्चा प्रश्न करते समय 
बच्चा नहीं होता 
पर जब भी आप बच्चे को 
प्रश्न करते देखते हैं 
तो वो बच्चा ही रहता है 
उसके छोटे-छोटे हाथ 
छोटा सा मुँह 
और छोटी-छोटी 
पगध्वनियाँ 
सयानों कि छाती में 
संगीत की तरह प्रबंध करती हैं 
बच्चा नायाब है दुनिया में 
सृजन का इससे अच्छा 
उदहारण नहीं मिलेगा 
कला की दुनिया में।  

भरोसे पर भरोसा

गैर भरोसे की दुनिया में भी 
आदमी को भरोसा करना ही पड़ेगा 
अपने हाथ पर भरोसा कि वह 
निवाले को मुँह तक ले जायेगा 
और अपने उत्सर्जन तंत्र का भरोसा 
कि वह वहिर्गमन करेगा ही 
अपने सांसों पर भरोसा 
कि वह चलेंगे 
और दिल और फेफड़े को मिलता  रहेगा 
आक्सीजन ,
रोटी ,आटे और नमक पर 
भरोसा करना पड़ेगा 
और बेवफा से बेवफा औरत पर 
यह भरोसा तो करना ही पड़ेगा 
कि यदि जनेगी तो वही जनेगी 
पुरुष जन नहीं सकता 
कोई बच्चा। 
आग पर भरोसा 
पानी पर भरोसा 
और अपने खुशियों या ग़मों पर भरोसा  
अब करना ही पड़ेगा आदमी को 
तो वह क्यों कहता रहेगा कि 
अब भरोसे के काबिल नहीं दुनिया। 

Tuesday 4 March 2014

यह कोई प्रार्थना भी नहीं है

जीवन की सांध्य वेला में 
जिंदगी का हिसाब लगाते हुए 
कुछ याद नहीं आता 
ऐसा जो दर्ज करने लायक हो,
किसी के काम आया कि नहीं आया 
वे तो वही जानते होंगे 
पर अपने लिए जुगाड़ने में 
इज्जत की रोटी 
पूरी जिंदगी खर्च हो गयी 
चाहता तो यही था 
कि सभी को इज्जत की रोटी 
जिंदगी भर मिले 
और मरने पर 
श्रद्धांजलि 
पर ऐसा करना मेरे वश में न था। 
अब अपने आस-पास देखता हूँ 
किसी को दोष दिए बिना 
तो इतना भर कह सकता हूँ 
कोई बहुत अच्छा न लगा 
यहाँ तक कि जिससे प्रेम किया वह भी 
जिनसे खिन्न हुआ वह भी 
दुश्मनी तो किसी से नहीं पाली 
क्यों कि दुश्मन मेरे कोई स्थाई रूप से बना ही नहीं 
सभी मित्र थे 
यहाँ तक कि पेड़ और पौधे भी 
जिनसे कई मामलों में 
बात-चीत कर सका था 
जिन जीवों की जाने-अनजाने 
मुझसे हत्या हुई 
उनसे क्षमा मागने के अतिरिक्त 
मैं क्या कर सकता हूँ 
कुछ चाहिए नहीं 
बस यह दुनिया 
जीतनी भी अच्छी हो सके हो जाय 
तो चैन से मर सकूंगा 
इसके लिए ईश्वर से प्रार्थना ,यदि वह सचमुच हो।  

एक लम्बी लड़ाई

कोई नहीं सुनना चाहता सत्य 
जैसे मौत की खबर सुनकर 
अपनी मौत के होने के सच 
को टालते हुए जीवन में 
शरीक हो जाता है आदमी। 
अन्याय के प्रतिकार का 
समर्थन वह तभी तक करता है 
जबतक उससे होने वाले अन्याय 
के प्रतिकार की चर्चा न की  जाय। 
प्रेम,सहानभूति और करुणा 
सब अपने लिए चाहते हैं 
पर देने के मामले में 
समय, सुविधा और 
न्यूनतम हानि की कीमत पर। 
दुनिया को बदलने की 
इच्छा वाला आदमी 
अपने को बदलने के 
प्रायः विरुद्ध 
और यह एक ऐसा युद्ध है 
जिसे शताब्दियों तक 
लड़ा जाना है 
और इसके हथियारों की 
खोज भी इसी समाज को करना है। 

कविता नही

इच्छा इतनी नहीं कि 
किसी से भिक्षा मांगू 
घमंड भी इतना नहीं कि 
किसी की महानता के सामने 
सिर झुका सकूँ 
अब मेरे जैसे औसत 
आदमी के लिए 
कहाँ है दुनिया में गुंजाइश 
मुझे तो लगने लगा है कि 
अब कविताओं में भी 
मेरे जैसों की कोई गुंजाइश नहीं रही। 
फिर भी आप के लिए नहीं 
अपने लिए लिखता हूँ कविता 
बिना अंकित किये 
एक अलिखित ख़त की तरह 
चांदनी को 
प्रिया की स्मृति को 
और दोस्तों की 
जिंदगी को। 
ये चीजे कविता के रास्ते से नहीं 
मेरे दिल के रास्ते से आते हैं। 


कहाँ से ले आऊँ

कहने के लिए बहुत कुछ नहीं है 
हल होगी मूलभूत समस्याएं 
जबसे 
चलने के लिए था मेरे सपनों का रास्ता 
पर वह पूरी न हो सके 
क्यों कि जुड़े थे दूसरों के साथ 
वे मेरे नहीं हो सकते थे 
इसलिए हो गयी चुनौतियों के बीच,
बड़ा मुश्किल है 
जीना और मुकम्मल बने रहना
क्यों कि  
मुश्किल होती जा रही है नौकरी 
मुश्किल होता जा रहा है घर 
मुश्किल होते जा रहे हैं परिजन 
मुश्किल होती जिंदगी की 
असलियत 
बहुत मुश्किल है मोल पाना 
रोज-रोज का टटमजार 
और शायद सबसे ज्यादा 
मुश्किल है ज्ञान की सीमा 
जिस पर सबसे ज्यादा किया था 
विश्वास 
अपने सपने की प्रेमिका की तरह 
वह भी तोड़ गया मेरा दिल 
अब कहाँ से ले आऊँ जीने का विश्वास। 

Monday 3 March 2014

अखबारी आदमी

वह चीखता ऐसे है 
जैसे छप रहा हो 
और जब हँसता है 
तो उसे मशीन से 
अखबार की तरह 
लद-लद गिरते देखा जा सकता है ,
वह इकठ्ठा होता है 
अपने वजूद में बंडल का बंडल 
सबसे आँख लड़ाती बेहया 
औरत की तरह 
वह इतना प्रसिद्द होता है कि 
दिन भर में ही 
पूरा-पूरा 
फ़ैल जाता है 
आबादी पर ,
अगले दिन वह फिर 
हंसेगा, चीखेगा, गायेगा 
फर्ज करेगा 
और दोहरायेगा, घोसणा करेगा 
आदमी अखबारी है 
अखबार में छपा रहना चाहिए 
उसका प्यार। 

साहित्य

बड़े-बड़े लोगो ने 
कहीं बड़ी-बड़ी बातें 
प्रेम अभी और करना है 
दुनिया को और अधिक बनाना है बेहतर 
प्रकृति को बचाये रखना है 
सुन्दर स्त्रियों का सौंदर्य 
और अधिक चिन्हित होना है 
और कर्म नायक 
उपजाने हैं प्रबन्धकाव्यों की खेती में 
नायिकाओं को और अधिक बनाना है 
प्रगतिशील
यथार्थवादी उपन्यासों में 
देखना है कि 
आम आदमी के पास 
अपनी सहानभूति की 
दस्तक कैसे पहुंचे,
यह एक खुला रास्ता है 
जिसमे विचारों के लिए 
थोड़ी ज्यादे जगह देनी हैं 
मस्तिष्क में। 
बड़े लोग चले गए 
माइक में बोल कर पहले 
कुछ छोटे लोग 
बटोरते रहे 
फेकें हुए प्लास्टिक के गिलास 
समेटते रहे दरियाँ 
इकठ्ठा कर लादते रहे रिक्शे पर 
सब उठ गया 
साहित्यिक जमावड़े का रेला 
फिर वह जगह रह गई 
शायद अगली गोष्ठी की प्रतीक्षा में,
एक और व्यक्ति वहाँ अभी भी था 
सोचते हुए 
एक कवि के मन की तरह 
कुछ भी तो नहीं हुआ 
कहीं कुछ दुनिया में 
जो जैसे था 
वैसे का वैसे 
इतिहास के बहार 
कोई शब्द नहीं मिल रहा था 
कि दर्ज कर लिया जाय 
और रस निर्मित की  रिक्तता में 
उन्हें वैसे रख दिया जाय कि 
साहित्य सगुण हो जाय 
भले ही कवि का मन रहे निर्गुण। 
और हाँ 
इस कविता का साहित्य सोचते हुए 
सड़क पर जा रहा था कवि 
और गली में मुड़ते ही 
कुत्ते ज्यादा भोंकते हुए उसे फिर मिल गए थे। 
 

बूढ़ा देश

बच कर निकल गई 
हाथ आई जिंदगी 
मछली जैसे पकड़ में आई-आई 
फिसल गई। 
चुप चाप मृत्यु की  प्रतीक्षा में 
बैठा बूढ़ा आदमी
कब तक नाती-पोतो का मुँह देखता रहेगा 
दवाई और रोग 
पेट की कमजोरी 
हड्डियों का कड़कड़ापन 
और अतीत का बोझ 
वर्तमान में रहने नहीं देता। 
मेरा देश एक पुराना देश है 
जिसकी आँखों में चमक 
कभी-कभी आती है।   

Sunday 2 March 2014

कविता की आदत


इसी तरह के मौन सन्नाटे में 
जीभ को साधते रहते हैं हम 
अपारदर्शी भविष्य 
और चमकीले अतीत में 
वर्तमान ऐसे लुढकता है जैसे 
कोई पत्थर लुढक रहा हो 
और गंतव्य का पता न हो 
हमारा असली भविष्य 
हम नहीं लोग देखेंगे जो बचे रहेंगे। 
इस अपार असमझ बूझ को 
दर्ज करते रहना 
कविता की आदत है। 

चुप रहने दो मुझे

समाधि के स्वाद की तरह 
मौन के 
आस-पास शब्द 
छोटे-छोटे बच्चों की भाँति 
उधम मचाते हैं 
उन्हें देखने की चेष्टा में 
मैं असहजता का अनुभव करता हूँ ,
क्या कर सकता हूँ 
मंदिर के सामने मंगलवार के दिन 
पंक्तिबद्ध दरिद्रों ,अपंगो ,कोढ़ियों के लिए मैं 
कुछ भी तो नहीं कर सकता 
ये शब्द किस काम के हैं 
और कविता भी किस काम की  
आने वाला है जन्मदिन 
एक समाजवादी का 
मुझे वहाँ जाना है 
वह भी तो कुछ नहीं कर सकते 
इन दरिद्रों के लिए 
परमाणु डील तो होगा 
पर बिजली भी तो नहीं मिटा सकती 
भूख के विराट अन्धकार को 
जो तीसरी दुनिया के तमाम लोगो की 
पेट और छाती पर फैला है 
चुप रहने दो मुझे 
बोलने दो दुनिया को। 

मरने से कुछ नहीं मिलता

जियेंगे तो दुनिया देखेंगे 
मर गये तो क्या देखेंगे 
लोग देखेंगे 
हम तो नहीं देखेंगे 
पैसा नहीं भी रहेगा तो 
धुधली आँखे रहेंगी 
और चल नहीं पाये तो 
बैठे-बैठे देखेंगे 
जो लोग चलेंगे 
उनमे से कोई तो 
हमारे पास से गुजरेंगे। 
किसी बागीचे में फूल नहीं 
तो सामने के खाली जगह पर 
उगी घास देखेंगे 
पेड़ पर बैठे चिड़िया न बैठे 
उड़ते कौवे को देखेंगे ,
जो सुन्दर था न देख सकें 
उन्हें कूड़ा होने पर देखेंगे 
कुछ तो देखेंगे। 
आँखे नहीं बचेगी तो 
स्पर्श अनुभव करेंगे 
कान नहीं रहेंगे 
होने की हरकत महसूस करेंगे ,
हर हाल में जीना 
बेहद खूबसूरत है 
मरना बदसूरत तो नहीं है पर 
मरना तो कुछ भी नहीं देखना है। 
देखेंगे ईश्वर 
नरक 
और स्वर्ग 
जीते ही 
मरने से तो कुछ नहीं मिलता 
न ईश्वर 
न नरक 
न स्वर्ग। 

कविता की भी मुश्किलें होती हैं

कविता खटाई में पड़ जाती है 
जब जिंदगी की जीभ पर 
बहुत तीखी मिर्ची पड़ जाती है 
जैसे पाँव के नीचे गन्दा पड़ जाने से 
आदमी लगड़ाने लगता है 
कविता हकलाने लगाती है। 
प्रेम की नदियां समुद्र में नहीं पहुंचती 
और देवता की जाति में न पैदा होने के कारण 
अमृत मिल भी जाय 
तो सिर और धड़ को अलग होना पड़ता है ,
कोई भी कविता 
सच्चाई नहीं झेल सकती 
क्यों कि वह आदमी नहीं होती 
और होती भी है तो कुछ ज्यादा 
या कम। 
मेरे मित्रों 
बहुत मुश्किल है 
बहुत सी हालातों में कविता 
संवाद का अवसर 
शायद हमेशा नहीं होता 
शब्द पर्याप्त नहीं होते 
और होते भी हैं तो 
इतने ज्यादे पर्याप्त हो जाते हैं कि 
वह - वह नहीं बोलते 
जो बोलना चाहिए ,
कविता भी एक स्वीकृत मुहावरे की तरह है 
और जिंदगी पूरी की पूरी 
कभी स्वीकृत नहीं होती।