Thursday 27 February 2014

हारे हुए लोग बरक्स जीते हुए लोग

जीते हुए लोग 
ऊचे और ऊचे 
सिंहासनो पर 
बैठते गए 
पर देखो न चमत्कार 
बचे हुए लोग 
बहुसंख्यक थे। 
हारे हुए लोग 
खुश नहीं है अपनी हार पर 
पर इक्ट्ठा तो हैं 
और सिंहासनो पर बैठे लोगों की 
तरह उस तरह ईर्ष्या में भी नहीं हैं। 
ईर्ष्या और द्वेष 
मद और मत्सर 
हमेशा जीते हुए लोगों में ज्यादा होता है 
क्यों कि वे इक्ट्ठे नहीं होते 
हारे हुए लोग 
एक साथ होते हैं हर हार के बाद 
और थोड़े समय का दुख 
मनाने के बाद 
वे हमेशा आपस में डूब जाते हैं। 

स्वयं सिद्ध कुछ नहीं

स्वयं सिद्ध कुछ नहीं 
न आग 
न पानी 
न पेड़ 
न फल 
न लोटा 
न गिलास 
यहाँ तक कि जीना और मरना 
कुछ भी स्वयं सिद्ध नहीं है 
मरने के लिए भी जीना पड़ता है 
और आग को जलाना 
पानी को पीना 
फल को खाना 
लोटे को उठाना 
और गिलास को ओठों से लगाना पड़ता है ,
तुम कहते हो 
ईश्वर स्वयं सिद्ध है 
उसे भी धरती पर आना पड़ता है 
या आकाश में रहना पड़ता है 
हवाओं को प्रेरित 
सूर्य को प्रकाशित 
और पर्वतों, जंगलों और 
जाने कितने प्राणियों 
वनस्पतियों को रवाना पड़ता है ,
सब लगे रहते हैं 
जीवन का व्याकरण 
कभी स्वयं सिद्ध नहीं होता। 

आग

मैंने कहा
आग
मुझे याद नहीं
वह कब जली थी
मेरे जन्म के समय शायद ढिबरी थी,
थोड़ा बड़ा होने पर
लालटेन ,बल्ब
और मरकरी ,
आग मेरे लिए रौशनी भी थी
पर ज्यादातर मेरे लिए
रोटी थी
भात, दाल, तरकारी
वह चौके में पकाती
पवित्र अग्नि
कुछ और थी।
घोर आश्चर्य
इधर उसने अपना चरित्र बदल लिया है
वह जलती है
तो किसी न किसी की हिंसा करती है
भड़क उठती है
तो पानी से नहीं बुझती ,
आग एक दिलचस्प कविता है
थोड़ी देर के लिए
पर ज्यादातर उसमें धुआ है
कड़वाहट है ,
मैं उसे जलते भी देख चुका हूँ
बुझते भी और
कभी-कभी
दोनों ही देखना चाहता हूँ एक साथ।
मेरे पिता कहते हैं
वैश्वानर
जंगल दावाग्नि
और समुद्रों से मैंने खुद नहीं पूछा
मेरे पुरखो ने पूछा था
उन्होंने कहा था बड़वाग्नि
पृथ्वी उसे जलती और बुझती
महसूस करती है
चौके और चिता की शक्ल में
महात्मा कहते हैं वासना
और सयाने कहते हैं चिंता। 
अरे आग ,
मैं तुम्हारा कृतज्ञ हूँ 
कि तुम साक्षी हो सूर्य की तरह 
चाँद तारों की तरह 
और जानता हूँ 
कि तुम मुझे भस्म भी करोगी एक दिन 
जैसे तुमने जन्म दिया था एक दिन।