Thursday 27 February 2014

आग

मैंने कहा
आग
मुझे याद नहीं
वह कब जली थी
मेरे जन्म के समय शायद ढिबरी थी,
थोड़ा बड़ा होने पर
लालटेन ,बल्ब
और मरकरी ,
आग मेरे लिए रौशनी भी थी
पर ज्यादातर मेरे लिए
रोटी थी
भात, दाल, तरकारी
वह चौके में पकाती
पवित्र अग्नि
कुछ और थी।
घोर आश्चर्य
इधर उसने अपना चरित्र बदल लिया है
वह जलती है
तो किसी न किसी की हिंसा करती है
भड़क उठती है
तो पानी से नहीं बुझती ,
आग एक दिलचस्प कविता है
थोड़ी देर के लिए
पर ज्यादातर उसमें धुआ है
कड़वाहट है ,
मैं उसे जलते भी देख चुका हूँ
बुझते भी और
कभी-कभी
दोनों ही देखना चाहता हूँ एक साथ।
मेरे पिता कहते हैं
वैश्वानर
जंगल दावाग्नि
और समुद्रों से मैंने खुद नहीं पूछा
मेरे पुरखो ने पूछा था
उन्होंने कहा था बड़वाग्नि
पृथ्वी उसे जलती और बुझती
महसूस करती है
चौके और चिता की शक्ल में
महात्मा कहते हैं वासना
और सयाने कहते हैं चिंता। 
अरे आग ,
मैं तुम्हारा कृतज्ञ हूँ 
कि तुम साक्षी हो सूर्य की तरह 
चाँद तारों की तरह 
और जानता हूँ 
कि तुम मुझे भस्म भी करोगी एक दिन 
जैसे तुमने जन्म दिया था एक दिन। 







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