एक मैं ही नही
अनादि ब्रह्म भी तप रहा है
तुम्हारे फन में
दोपहर की तरह
ढलता मैं
किवाड़ो को खोल कर
तुम्हारे पास से आने वाले
हवा की प्रतीक्षा में
कब से खड़ा हूँ
दुनिया की इस पुरानी
हवेली में।
कितनी बरसातों
कितने भीतो
वर्षो के बाद
तुम्हारे नेत्रों में आई
थोड़ी सी अपने लिए
चमक देखने के लिए
कब से ज्वार भांट की तरह
लहर रहा हूँ-विराट सागर में
कि तुम किसी पूर्ण मासी की रात में
सम्पूर्ण उतरोगे
आसक्ति के मेरे
समूचे जल में।
अनादि ब्रह्म भी तप रहा है
तुम्हारे फन में
दोपहर की तरह
ढलता मैं
किवाड़ो को खोल कर
तुम्हारे पास से आने वाले
हवा की प्रतीक्षा में
कब से खड़ा हूँ
दुनिया की इस पुरानी
हवेली में।
कितनी बरसातों
कितने भीतो
वर्षो के बाद
तुम्हारे नेत्रों में आई
थोड़ी सी अपने लिए
चमक देखने के लिए
कब से ज्वार भांट की तरह
लहर रहा हूँ-विराट सागर में
कि तुम किसी पूर्ण मासी की रात में
सम्पूर्ण उतरोगे
आसक्ति के मेरे
समूचे जल में।
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