Sunday 26 January 2014

डेरा

इस दौड़ से थके 
तो रुके 
दोनों आँखे बन्द हुई 
तो तीसरा नेत्र खुल गया 
कोई तरकीब नहीं थी 
कविता में होने के अलावा 
गो इतने से कविता नहीं थी पूरी 
मैं ही था पूरा का पूरा। 
असंख्य तो नहीं 
गिनने का समय भी नहीं था 
उठ रहे थे पकड़ने को मुझे अनेक हाथ 
वे किसके थे 
नहीं जानता 
भागने का कोई उपाय नहीं था 
हम कविता को ही पुकार सकते थें 
पुकारा ,
कविता कहाँ आती है पास 
शब्द आयें तो आयें 
उनका काम है,यहाँ वहाँ भटकना 
किसी के पास रहना 
कुछ लोंग इस्तमाल के लिये होतें हैं। 
अतः मुझे प्रकृति में भागना पड़ा 
जैसी भी थी उप्लब्द्ध 
कोई चारा नहीं नहीं था 
कि मैं उसमें लीन हो जाऊँ 
प्रकृति नहीं थी मेरी विश्राम स्थली 
फिर भी मैं आखिर कहाँ जाऊँ 
कहाँ सुस्ताऊँ ?

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