Sunday 26 January 2014

रात का सन्नाटा

सुनता हूँ एकांत में 
दूर का सन्नाटा 
कोई मणिधर जैसे बाँबी में प्रवेश कर रहा हो ,
प्राण खींचते जा रहे हैं 
रात कुछ नहीं बोलती 
किवाड़ों पर टंगे परदे 
यूनान के संतो कि दाढ़ी की तरह हिलते हैं 
यहाँ से वहाँ 
समय का रथ घरघराता है 
घोड़ो की टाप मुझे सुनाई देती है 
साथी अनेक हैं 
कोई मन पसंद 
पर कौन मेरे साथ अपनी छाती पर पहाड़ रखे ,
कौन सुने यह सन्नाटा 
जो शब्दों की सेना को मौत की नींद सुला देता है। 


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